नौंवी पोस्ट--इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत--6 (फ़ैसला ता क़ियामत--9)

बिस्मिल्लाहिर्रह़मानिर्रह़ीम
नह़मदुहू व नुस़ल्ली व नुसल्लिमु अ़ला रसूलिहिल करीम।
  "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत" के बयान के पांचवें ह़िस़्स़े में हमने कई अह़ादीसे शरीफ़ा इस बारे में पढ़ीं कि सरकारे दो आ़लम स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने ही अपनी उम्मत को "बिदअ़ते क़बीह़ा" से बचने के लिए "क़ियास" करना सिखाया है।अब "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत" के बयान के इस छटे और आख़िरी ह़िस़्स़े में ह़ज़रत मुफ़्ती जलालुद्दीन अह़मद अमजदी रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह की किताब "अनवारुल ह़दीस" में जो सुन्नत और बिदअ़त बयान लिखा है उसे नक़ल किया जाता है।इस बयान में हमारे बुज़ुर्गों ने जो बिदअ़ते ह़स्ना और बिदअ़ते क़बीह़ा की क़िस्में बताई हैं, उस का ज़िक्र किया गया है...
1)हज़रते अबू हुरैरा रद़ीयल्लाहु तआ़ला अनहु ने फ़रमाया कि रसूले करीम स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया कि जो शख्स़ मेरी उम्मत में अ़मल या अक़ीदे की खराबी पैदा होने के वक्त मेरी सुन्नत पर अ़मल करेगा उस को सौ शहीदों का सवाब मिलेगा।(मिशकात शरीफ़)
(2) हज़रते बिलाल इब्ने ह़ारिस मज़नी रद़ीयल्लाहु तआ़ला अनहु से रिवायत है उन्हों ने कहा कि सरकारे अक़दस स़ल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहिव आलिही वसल्लम ने फ़रमाया कि जिस ने मेरी किसी ऐसी सुन्नत को (लोगों) में रवाज दिया जिस का चलन खत्म हो गया हो तो जितने लोग उस पर अ़मल करेंगे उन सब के बराबर रवाज देने वाले को सवाब मिलेगा और अ़मल करने वालों के सवाब में कुछ कमी न होगी। और जिस ने कोई ऐसी बात निकाली जो बुरी है जिसे अल्लाह  व रसूल (जल्ल जलालुह व स़ल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम) पसंद नहीं फरमाते तो जितने लोग उस पर अ़मल करेंगे उन सब के बराबर निकालने वाले पर गुनाह होगा और अ़मल करने वालों के गुनाहों में कुछ कमी न होगी।(तिरमिज़ी-मिशकात)
3)ह़ज़रते जरीर रद़ीयल्लाहु तआ़ला अ़नहो ने फ़रमाया कि रसूले करीम अ़लैहिस़्स़लातु वत्तस्लीम ने फरमाया कि जो इस्लाम में किसी अच्छे तरीक़े को रवाज देगा तो उस को अपने रवाज देने का भी सवाब मिलेगा और उन लोगों के अ़मल करने का भी जो उस के बाद उस तरीक़े पर अ़मल करते रहेंगे और अ़मल
करने वालों के सवाब में कोई कमी भी न होगी और जो मज़हबे इस्लाम में किसी बुरे तरीक़े को रवाज देगा तो उस शख्स पर उस के रवाज देने का भी गुनाह होगा और उन लोगों के अ़मल करने का भी गुनाह होगा जो उसके बाद उस तरीक़े पर अ़मल करते रहेंगे और अ़मल करने वालों के गुनाह में कोई कमी न होगी। (मुस्लिम शरीफ)
4) हज़रते जाबिर रद़ीयल्लाहु तआ़ला अ़नहु ने कहा कि सरकारे अक़दस स़ल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम ने (ग़ालिबन एक ख़ुतबे में) इरशाद फरमाया कि अल्लाह तआ़ला की ह़म्द के बाद मालूम होना चाहिए कि सब से बेहतरीन बात अल्लाह तआ़ला की किताब है, और बेहतरीन रास्ता मुहंम्मद (स़ल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि व आलिही वसल्लम) का रास्ता है और सब से बुरी चीज़ों में वह है जिसे नया निकाला गया और हर बिदअ़त गुमराही है। (मुस्लिम
शरीफ)
(यह ह़दीस शरीफ़ "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत" के बयान के तीसरे ह़िस़्स़े यानी क़ियास के बयान में गुज़र चुकी है।)
ह़दीस शरीफ़ की शरह़
हज़रत मुल्ला अ़ली क़ारी रह़मतुल्लाहि तआ़ला अलैहि इस ह़दीस शरीफ़ की शरह़ में लिखते हैं कि इमाम नौवी रह़मतुल्लाहि तआ़ला अ़लैह ने फ़रमाया कि ऐसा काम जिसकी मिसाल पहले ज़माने में न हो लुगत(डक्शनरी) में उसको बिदअ़त कहते हैं और शरअ़ में बिदअ़त यह है कि किसी ऐसी नई चीज़ का पैदा करना जो रसूलुल्लाह स़ल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम के ज़ाहिरी ज़माने में न थी और ह़ुज़ूर स़ल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम का फ़रमान "कुल्लु बिदअ़तिन द़लालतुन" आ़म मख़स़ूस़ है (यानी यहां बिदअत का मतलब कुछ ख़ास बिदअ़तें हैं जिन्हें बिदअ़ते सय्यिआ यानी बुरी बिदअ़तें कहते हैं) हज़रत शैख़  इज़्ज़ुद्दीन इब्ने अ़ब्दुस्सलाम ने किताबुल क़वाइ़द के आख़िर में फ़रमाया कि बिदअ़त या तो वाजिब है जैसे अल्लाह और उसके रसूल स़ल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम की बातों को समझने के लिए नह्व(अ़रबी गरामर) सीखना, और जैसे उस़ूले फ़िक़ह और अस्माउर्रिजाल के फ़न को तरतीब देना,और बिदअ़त या तो ह़राम है जैसे जबरिया, क़दरिया, मुरजिआ़, मुजस्सिमा का मज़हब।लेकिन उन बद मज़हबों का रद करना बिदअ़ते वाजिबा से है इस लिए कि उनके गलत अक़िदों से शरीअ़त को बचाना फर्ज़े किफाया है और बिदअ़त या तो मुस्तह़ब है जैसे मुसाफिर खाने और मदरसे बनाना और हर वह नेक काम जिस का रवाज शुरू ज़माने में नहीं था। और जमाअ़त के साथ तरावीह़ और सूफियाए किराम रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न की बारीक बातों में बातचीत करना-और बिदअ़त या तो मकरूह है जैसे शाफिई़ लोगों के नज़दीक मस्जिदों का नक़शो निगार और यह ह़नफ़ियाह के नज़दीक बिला कराहत जाएज़ है।
और बिदअ़त या तो मुबाह है जैसे कि सुबह और अस्र की नमाज़ के बाद मुस़ाफह़ा करना और लज़ीज खाने खाना और अच्छे-अच्छे मकानों में रहना और कुरते की आस्तीनों को लम्बा रखना। इमाम शाफिई़ रह़मतुल्लाहि अलैहि ने फ़रमाया कि ऐसी नई चीज़ का पैदा करना जो क़ुरआन मजीद, ह़दीस शरीफ़, स़ह़ाबा रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न के तरीके या इजमाअ़ के खिलाफ हो तो वह गुमराही है और ऐसी अच्छी बात का पैदा करना जो उन में से किसी के ख़िलाफ न हो तो वह बुरी नहीं है।
(मिरकात शरह मिशकात जिल्द 1 सफा 179)
और हज़रत शैख अ़ब्दुलह़क़्क़ मुह़द्दिस देहलवी बुखारी रह़मतुल्लाहि तआ़ला अलैहि इस हदीस की शरह़ में लिखते हैं कि वह चीज़ जो ह़ुज़ूर स़ल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि व आलिही वसल्लम के ज़ाहिरी ज़माने के बाद हुई वह बिदअ़त है लेकिन उनमें से जो कुछ ह़ुज़ुर स़ल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि व आलिही वसल्लम की सुन्नत के क़ाइदे और क़नून के मुवाफ़िक़ है और उसी पर "क़ियास" किया गया है। उसको "अच्छी बिदअ़त" कहते हैं और उनमें जो चीज़ सुन्नत के ख़िलाफ हो उसे बिदअ़ते गुमराही कहते हैं और "कुल्लु बिदअ़तुन द़लालतुन" में )यानी ह़दीस शरीफ़) में जो हर बिदअ़त को गुमराही कहा गया है उसका मतलब यही गुमराही वाली बिदअ़त है यानी हर बिदअ़त से मुराद सिर्फ वही बिदअ़त है जो सुन्नत के ख़िलाफ हो-और कुछ बिदअ़तें वाजिब यानी ज़रुरी हैं जैसे कि इल्मे सर्फ व नह़्व का सीखना सिखाना कि उससे आयतों और ह़दीसों के मतलब समझ में आते हैं।
और क़ुरआन व ह़दीस की अनोखी बातों को याद करना और दूसरी चीज़ें कि मज़हब की ह़िफाज़त का उन पर दार व मदार है-और बाज़ बिदअ़तें मुस्तह़सन व मुस्तह़ब हैं जैसे सराय और मदरसे बनाना
और कुछ बिदअ़तें मकरुह हैं जैसे कि कुछ लोगों के नज़दीक क़ुरआन मजीद और मस्जिदों में नक़्श व निगार करना और कुछ बिदअ़तें मबाह हैं जैसे कि बेहतरीन कपड़ों और अच्छे खानों की ज़्यादती जब कि ह़लाल हों और घमंड का सबब न हों। और दूसरी मुबाह़ चीज़ें जो ह़ुज़ुर स़ल्लल्लाहु तआला अ़लैहि व आलिही वसल्लम के ज़ाहिरी ज़माने में न थीं जैसे छलनी वगैरा और कुछ बिदअ़तें ह़राम हैं जैसे कि अहलेसुन्नत व जमाअ़त के खिलाफ नये अक़ीदे वालों के मज़हब(यानी बदमज़हब) और
जो बातें हज़रते अबू बकर स़िद्दीक़,ह़ज़रते उ़मर, ह़ज़रते उ़स्मान ग़नी, और ह़ज़रते अ़ली रद़ीयल्लाहु अ़नहुम ने की हैं अगरचे इस लिह़ाज़ से कि ह़ुज़ूर स़ल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम के ज़माने में नहीं थीं,बिदअ़त हैं लेकिन अच्छी बिदअ़तों में से हैं बल्कि ह़क़ीक़त में सुन्नते रसूल स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम हैं। (अशिअ़तुल्लम्आत जिल्द 1 सफा 128)
और शामी जिल्द 1 सफा 393 में है कि बिदअ़त कभी वाजिब यानी ज़रूरी होती है जैसे गुमराह फ़िरक़े वालों यानी बदमज़हबों पर रद की दलीलें क़ाइम करना और इ़ल्मे नह़व का सीखना जो क़ुरआन व ह़दीस समझने में मददगार होता है। और बिदअ़त कभी मुस्तह़ब होती है जैसे मदरसों और मुसाफ़िर ख़ानों को बनाना और हर वह नेक काम करना जो शुरू ज़माने में नहीं था। और बिदअ़त कभी मकरुह होती है जैसे मस्जिदों को सजाना व संवारना और बिदअ़त कभी मुबाह़ होती है जैसे खाने पीने और कपड़े में ज़्यादती इख्तियार करना जैसा की मुनावी की शरह़ जामए़ सग़ीर में तहज़ीबुन्नौवी से है और उसी के मिस्ल बरकिली की किताब तरीकये मुह़ंम्मदीया में है।
इस बयान से हमें यह मालूम हुआ कि बिदअ़ते ह़स्ना तीन क़िस्म की हैं...
1)वाजिब 2)मुस्तह़ब 3)मुबाह़
और बिदअ़ते(सय्यिआ)क़बीह़ा दो क़िस्म की होती हैं...
1)ह़राम 2)मकरूह
किसी भी बात को सिर्फ बिदअ़त नहीं बोलना चाहिए।यह बदमज़हबों का त़रीका है।अगर किसी बात को बिदअ़त बोलना हो तो उसे खुल कर बिदअ़ते ह़स्ना या बिदअ़ते(सय्यिआ) बोलना चाहिए।
यहां पर "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत" यह बयान पूरा हुआ।अब क़ियामत तक के हर इंसान को जो चार ख़ास बातें सीखनी चाहिए उन में की तीसरी बात "इस सवाल का जवाब कि "शरीअ़त पहले है या त़रीक़त"? का बयान इंशाअल्लाहुलअ़ज़ीज़ "फ़ैस़ला ता क़ियामत" सिलसिले की दसवीं पोस्ट में होगा।अगली पोस्ट को पढ़ने के लिए निचे लिंक पर क्लिक करें...
https://www.gchishti.com/2019/10/10.html

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