चौथी पोस्ट--इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत--1 (फ़ैस़ला ता क़ियामत--4)

बिस्मिल्लाहिर्रह़मानिर्रह़ीम
नह़मदुहू व नुस़ल्ली व नुसल्लिमु अ़ला रसूलिहिल करीम।
"फ़ैस़ला ता क़ियामत" सिलसिले की तीसरी क़िस्त से उन बातों उन उ़लूम के बारे में लिखना शुरू हुआ है जिन को ना सीखने ना समझने ख़ास तौर पर ना मानने की वजह से इंसान बदमज़हब यानी गुमराह फ़िरक़ों वाला बन जाता है।
बदमज़हबीयत से बचने के लिए ख़ास तौर पर चार बातें ऐसी हैं जिन को अच्छे से समझना क़ियामत तक हर दौर में हर शख़्स के लिए ज़रूरी है...
1)कुफ्र और ईमान कि ताअ़रीफ यानी व्याख्या(Definition) जानना।
2)इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमीयत जानना।(यह बयान लम्बा है, कई पोस्ट में होगा, लेकिन हर इंसान के लिए जानना ज़रूरी है।)
3)इस सवाल का जवाब कि "शरीअ़त पहले है या त़रीक़त"?
4)आयाते मोतशाबिहात की पहचान।
"जिसमें पहली बात यानी "कुफ्र और ईमान कि ताअ़रीफ यानी व्याख्या(Definition) जानना।" इस बारे में तीसरी क़िस्त में बात हुई थी।अब"फ़ैस़ला ता क़ियामत" सिलसिले की चौथी क़िस्त में दूसरी बात यानी"इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमीयत।" के बारे में इंशाअल्लाह बात होगी। 
अस़ल बात यह है कि किसी भी मसले को समझने के लिए उस मसले में अच्छी बह़स की ज़रूरत होती है।
और अगर मसला स़ह़ीह़ तरह समझाए बग़ैर लोगों के बीच बयान कर दिया जाए तो स़ह़ीह़ तरह़ ना समझने वाले लोगों के लिए वह मसला एक फितना बन सकता है।
चुनानचह स़ह़ीह़ मुस्लिम शरीफ़ के मुक़दमे (यानी शुरू) में ह़ज़रते अ़ब्दुल्लाह इब्ने मसऊ़द रद़ियल्लाहो तआ़ला अ़न्हो से मरवी है कि जब तुम लोगों से ऐसी अह़ादीस बयान करोगे जहां उन की अ़क़्लें न पहुंच सकें तो कुछ लोगों के लिए यह फ़ितने की वजह बन जाएंगीं,यानी वह गुमराह हो जाएंगे इस लिए हर शख़्स से उस की अ़क़्ल के मुत़ाबिक़ बात करनी चाहिए।
इस लिए अच्छे से समझाने के लिए यह बयान कुछ लम्बा हो गया है लेकिन इसके बग़ैर दोसरा रास्ता भी ना था।
इ़ल्मे फ़िक़ह वह इ़ल्म है जिसे इंसान सारी ज़िंदगी भर सीखता रहता है।इस इ़ल्म से किसी को छुटकारा नहीं।इस की अहमियत इस बात से समझ लिजिए कि "ह़ज़रते उ़मर फ़ारूक़े आ़ज़म रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़नहो ने एलान फ़रमा दिया था कि जो शख़्स फ़क़ीह न हो यानी इ़ल्मे फ़िक़ह ना रखता हो वह हमारे बाज़ारों में न आए।"
लेकिन यहां पर इ़ल्मे फ़िक़ह की जान"इजमाए़ उम्मत"की अहमियत के बारे में बात करना मक़स़ूद है।यह बताना है कि जिस ने "इजमाए़ उम्मत" की अहमियत को ही ना समझा उसने "इ़ल्मे फ़िक़ह"को ही ना समझा।वह "इ़ल्मे फ़िक़ह" पढ़ कर भी जाहिल है।
स़ह़ीह़ मुस्लिम शरीफ़ में ज़कात के बयान में ह़ज़रते अमीर मुआ़वियह रदीयल्लाहो तआ़ला अ़नहो से मरवी है कि रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया...
 مَنْ يُرِدْ اللَّهُ بِهِ خَيْرًا يُفَقِّهْهُ فِي الدِّينِ وَإِنَّمَا أَنَا قَاسِمٌ وَيُعْطِي اللَّهُ
यानी"अल्लाह तआ़ला जिस के साथ भलाई का इरादा फ़रमाता है उसे दीन की समझ अ़त़ा फ़रमाता है और मैं तक़सीम करने वाला हूं और उसे अ़त़ा करता हूं।"
अ़रबी में "यु-फ़क़्क़ह फ़िद्दीन" का मतलब होता है दीन की समझ।यानी शरीअ़त की इस़्तिलाह़ में"इ़ल्मे फ़िक़ह" का मतलब होगा "दीन की समझ का इ़ल्म"।इस इ़ल्म में मसाएल में बह़स होती है,फिर चाहे मसाएल अ़क़ीदे के हों या मआ़मलात के या इ़बादात के।और मसाएल तो हर क़दम पर बल्कि अ़का़एद के मसले तो हमारी ज़िंदगी के साथ हमारी सांसों की तरह जुड़े हुए हैं।इतने अहम इ़ल्म को स़ह़ीह़ तरह समझना बहुत ज़्यादा ज़रूरी है।चुनांचे...
आ़म तौर पर यह सुनने में आता है कि इ़ल्मे फ़िक़ह के चार ह़िस़्स़े हैं पहले क़ुरआन पाक फिर अह़ादीसे शरीफा उसके बाद इजमाए़ उम्मत और आख़िर में क़ियास।फिर यह सुनने में आता है कि किसी भी मसले का ह़ल पहले क़ुरआन पाक में देखा जाएगा अगर वहां ना मिले तो फिर अह़ादीस मे देखा जाएगा अगर वहां भी ना मिले तो इजमाए़ उम्मत में उस मसले का ह़ल ढुंढा जाए, फिर भी अगर उस मसले का ह़ल ना मिले तो क़ियास करके उस मसले को ह़ल किया जाए।
तो जब आ़म लोगों के सामने यह बात रखी जाती है कि पहले क़ुरआन पाक में मसलों का ह़ल ढुंढा जाए वहां ह़ल ना मिले तो अह़ादीस में मसलों का ह़ल ढुंढा जाए तो आ़म लोगों की ज़हनियत येह बनती है कि कोई भी शख़्स क़ुरआन व ह़दीस से मसले निकाल सकता है।और इस बात का ग़लत फ़ायदा (बदमज़हब) उठाते हैं और कहते हैं कि क़ुरआन व ह़दीस में सब कुछ है इस लिए ना हमें किसी आ़लिम के पैरवी की ज़रूरत है ना हमें किसी के तक़लीद करने की ज़रूरत है।तो जब भी क़ुरआन पाक की तफ़सीर और अह़ादीस की तशरीह़ की बात बोली जाए यानी क़ुरआने पाक और अह़ादीसे शरीफ़ा से मसले मसाएल निकालने की बात की जाए तो उस के साथ ही क़ुरआन पाक की तफ़सीर करने का क़ानून और अह़ादीसे शरीफ़ा की तशरीह़ का क़ानून भी लोगों को बता देना चाहिए।ताकि कोई यह बात सोचे भी नहीं कि मैं क़ुरआन पाक की तफ़सीर और अह़ादीसे शरीफ़ा की तशरीह़ कर सकता हूं,और क़ुरआने पाक और अह़ादीस से मसाएल निकाल सकता हूं।
चुनानचह त़िबरानी कबीर जिल्द सूवम में 4784 नम्बर कि ह़दीस शरीफ है कि हज़रत ज़ैद इब्ने साबित रदीयल्लाहो तआ़ला अ़न्हो फरमाते हैं कि सरकारे दो आ़लम हुज़ूर मोह़म्मदुर्रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व आलिही वसल्लम का इरशाद है:क़ुरआन पाक कि तफ्सीर(explanation) अपनी राय से मत करो क्योंकि क़ुरआन पाक की तफ्सीर राय से करना कुफ़्र है।
(क़ुरआन पाक का तरजुमा करना यह भी तफ़्सीरे क़ुरआन पाक का एक ह़िस़्स़ा है।)

 और तिरमिज़ी शरीफ में तफ्सीरे क़ुरआन पाक के बाब में ह़ज़रत इब्ने अ़ब्बास रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़नहुम से रिवायत है कि सरकारे दो आ़लम  सल्लल्लाहो अलैहि व आलिही वसल्लम का इरशाद है : मेरी तरफ से कोई बात (यानी ह़दीस) उस वक्त तक नक़ल ना करो जब तक तुम्हें इस बात का यक़ीन ना हो कि यह मेरा क़ौल है और जो शख्स मेरी तरफ झूठ बात मन्सूब करेगा और ऐसा शख्स जो क़ुरआन पाक कि तफ्सीर अपनी राय से करेगा दोनों अपना ठिकाना जहन्नम में तलाश कर लें।इमाम तिरमिज़ी शाफ़िई़ रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह फरमाते हैं कि यह ह़दीस शरीफ ह़सन है।

तो क़ुरआन पाक में अपनी अ़क़ल दौड़ाना, अपनी राय से तफ़्सीरे क़ुरआने पाक करना तो कुफ्र है।तो फिर क़ुरआने पाक की तफ़सीर कौन करे?शरीअ़ते कामीला ने इसकी इजाज़त किसे दी है?अब यह जानना बेह़द ज़रूरी हो गया। लेकिन माशाअल्लाह शरीअ़त मुकम्मल है, अल्लाह तआ़ला की रह़मत बे इन्तेहा बड़ी है।जिस तरह़ अल्लाह तआ़ला ने यह बताया है कि क़ुरआन पाक को दुनिया में हमेशा ता क़ियामत ह़िफ़ाज़त से रखेगा। वैसे ही यह भी बताया है कि क़ुरआने पाक की तफ़्सीर करने की इजाज़त किन लोगों को है, और उन लोगों को भी अल्लाह तआ़ला हमेशा ता क़ियामत ह़िफ़ाज़त से रखेगा। ह़की़क़त तो यह है कि बग़ैर तफ़सीर के क़ुरआन पाक का दुनिया में कुछ मक़स़द नहीं निकलता और बग़ैर तशरीह़ के अह़ादीसे शरीफ़ा का भी कोई मक़स़द नहीं निकलता।तो जब रब तबारक व तआ़ला ने क़ुरआने पाक व अह़ादीसे मुबारक इ़नायत फ़रमाई हैं तो उन की तफ़सीर व तशरीह़ करनेवाले भी इ़नायत फरमाए हैं।
चुनांचे "फ़ैस़ला ता क़ियामत" की दोसरी पोस्ट में यह बयान हो चुका है कि रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला  अ़लैही व आलिहि व सल्लम ने बताया है कि मेरी उम्मत में सच्चे ईमान वालों की एक जमाअ़त हमेशा हर दौर में ता क़ियामत रहेगी।
चुनान्चे मुस्लिम शरीफ में अमारत और ख़िलाफ़त के बयान में हज़रत अमीर मोआ़वियह रदियल्लाहो तआ़ला अ़न्हो से मरवी है कि वह मिम्बर पर बयान फरमा रहे थे : रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिहि व सल्लम ने इरशाद फरमाया है कि मेरी उम्मत में से एक जमाअ़त हमेशा अल्लाह तआ़ला के ह़ुक्म को क़ायम करती रहेगी, जो उन्हें रुसवा करना चाहेगा या उनकी मुखालफत करेगा तो उन का(उन के अ़क़ीदे का) कुछ भी नुकसान ना कर सकेगा और वह लोगों पर गालिब रहेंगे।
 इस बारे में दो अह़ादीस और सुनिए...
जामेअ़ तिरमिज़ी शरीफ़ में फ़ितनों के बयान में ह़ज़रते इब्ने उ़मर रदीयल्लाहो तआ़ला अ़नहुम से मरवी है कि रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिहि व सल्लम ने इरशाद फरमाया:अल्लाह तआ़ला मेरी उम्मत को या फ़रमाया उम्मते मोह़ंम्मदीयह को गुमराही पर जमा नहीं करेगा।और जमाअ़त पर अल्लाह तआ़ला का हाथ होता है जबकि जो शख़्स जमाअ़त से अलग हुआ आग में डाल दिया गया।
इस ह़दीस शरीफ़ से भी यह बात साफ़ ज़ाहिर है कि रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिहि व सल्लम की पूरी उम्मत कभी गुमराह ना होगी एक जमाअ़त हमेशा ह़क़ पर रहेगी।और उस ह़क़ वाली जमाअ़त को पहचान कर उसके साथ होना ज़रूरी है ताकि सर पर अल्लाह तआ़ला की रह़मत का हाथ रहे वरना अगर सच्ची जमाअ़त का साथ छूट गया तो जहन्नम की आग में जलना पड़ेगा।
और
सुनन इब्ने माजह शरीफ़ में फ़ितनों के बयान में हज़रते औ़फ़ इब्ने मालिक रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़नहो से रिवायत है कि रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया:यहूद के इकहत्तर फ़िरक़े हुए उन में एक जन्नती है और सत्तर दोज़ख़ी हैं और ई़साईयों के बहत्तर फ़िरक़े हुए उनमें इकहत्तर दोज़ख़ी हैं और एक जन्नत में जाएगा।क़सम है उस ज़ात की जिस के क़ब्ज़े में मोह़ंम्मद स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम की जान है मेरी उम्मत के तिहत्तर फ़िरक़े होंगे एक फ़िरक़ा जन्नत में जाएगा और बहत्तर दोज़ख़ी होंगे।किसी ने अ़र्ज़ किया या रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम जन्नती कौन होंगे फ़रमाया"अल-जमाअ़त"।
तो सच्चे ईमान वालों की जो एक जमाअ़त हमेशा हर दौर में रही है वही जमाअ़त "अहले सुन्नत वल जमाअ़त" के नाम से मशहूर है।"अहले सुन्नत वल जमाअ़त" का मतलब सरकार सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहि व आलिही वसल्लम की सुन्नतों(त़रीक़ों) को मानने वाली वह जमाअ़त जिस के बारे में सरकार सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहि व आलिही वसल्लम ने बताया है कि वह जमाअ़त ता क़ियामत हमेशा हर दौर में रहेगी।

यहां पर हम लोगों को यह भी समझ लेना चाहिए कि  हम लोग जो लफ्ज़ "सुन्नी" का इस्तेमाल करते हैं उस लफ्ज़ सुन्नी का मतलब क्या है।
"सुन्नी" का मतलब अगर कोई यह समझता है कि "सुन्नी" उसे कहते हैं जो सुन्नते रसूल सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहि व आलिही वसल्लम पर अमल करता है तो वह सिर्फ एक हद तक सहीह है क्योंकि "सुन्नी" का एक मानी सुन्नते रसूल सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहि व आलिही वसल्लम पर अमल करने वाला भी होता है, लेकिन "सुन्नी" इस लफ्ज़ का सिर्फ इतना ही मतलब नहीं है इस का असल मतलब  है "अहले सुन्नत वल जमाअत"।"सुन्नी" लफ़्ज़ तो "अहले सुन्नत वल जमाअत" लफ़्ज़ का इख़्तेस़ार यानी शोर्टकट है। अहले सुन्नत का मतलब होता है सुन्नते रसूल सल्लल्लाहो अलैहि व आलिही वसल्लम पर अमल करने वाला और अल-जमाअत से मतलब और मूराद वही जमाअत है जिस का ज़िक्र सरकारे दो आ़लम स़ल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम ने अपनी अह़ादीसे स़हीहा मोतवातेरह में फरमाया है कि मेरी उम्मत में एक जमाअत हर दौर हर ज़माने में क़ियामत तक ह़क़ पर सच्चाई पर जमकर रहेगी,ह़क़्क़ानियत पर क़ायम रहेगी।
चुनानचह अल्लाह तआ़ला को मानने वालों की यह जमाअ़त ता क़ियामत हर दौर में रही है, रहेगी और इस जमाअ़त में ओ़लमाए किराम और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न भी हर दौर में इस में होते रहे हैं और होते रहेंगे।तो अहले सुन्नत वल जमाअ़त में ओ़लमाए किराम और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न की जो जमाअ़त हमेशा, हर दौर में होती है उस जमाअ़त को "इजमाए़ उम्मत" कहते हैं।इसी"इजमाए़ उम्मत" में स़ह़ाबह किराम और ओ़लमा ताबई़ने किराम और ओ़लमा तबअ़ ताबई़ने किराम और चारों ख़ास अइम्मए मुजतहेदीन रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न भी शामिल हैं,
(स़ह़ाबह किराम उन ख़ुशनसीब ह़ज़रात को कहा जाता है जिन लोगों ने अपनी ज़ाहिरी दुनियावी ज़िंदगी में सरकार स़ल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही वसल्लम का अपने सर की आंखों से जागते में दीदार किया है।और ताबई़ने किराम उन ख़ुशनसीब हज़रात को कहा जाता है जिन्होंने स़ह़ाबह किराम रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न का अपनी ज़ाहिरी दुनियावी ज़िंदगी में अपने सर की आंखों से जागते में दीदार किया है।और तबअ़ ताबई़ने किराम उन्हें कहा जाता है जिन्होंने ताबई़ने किराम रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न का अपनी ज़ाहिरी दुनियावी ज़िंदगी में अपने सर की आंखों से जागते में दीदार किया है।चारों ख़ास अइम्मए मुजतहेदीन रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न को उनके बाद के सारे आज तक के ओ़लमाए किराम अपना उस्ताद मानते आए हैं।)
यह "इजमाए़ उम्मत" के बुज़ुर्ग रिदवानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न अल्लाह तआ़ला की तरफ से दीने इस्लाम में लगाए गए पौधे हैं।
चुनांचे सुनन इब्ने माजह शरीफ़ में शुरू में ही "सुन्नत की पैरवी" के बयान में ह़ज़रते अबू ए़नबह ख़ौलानी रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़नहो(जिन्होंने रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के साथ दोनों क़िब्लों की तरफ मुंह करके नमाज़ पढ़ी है) से मरवी है कि रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया "हमेशा अल्लाह तआ़ला दीन में ऐसे पौधे लगाता रहेगा जिन्हें अपनी फ़रमांबरदारी में इस्तेमाल फ़रमाएगा"।
 सुबह़ानल्लाह! इस ह़दीस शरीफ में भी लफ़्ज़ "हमेशा" बताकर हम बंदों को महरबान और रह़मत वाले रब ने यह बशारत दी है कि "इजमाए़ उम्मत" यानी ओ़लमाए किराम और औलियाअल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न का सच्चा गिरोह हमेशा रहेगा।
यह "इजमाए़ उम्मत" के बुज़ुर्ग चुंकि अल्लाह तआ़ला की तरफ से दीन में लगाए हुए पौधे हैं इस लिए अल्लाह तआ़ला की अ़त़ा और फ़ज़्लो करम से सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिही व सल्लम की तालीमात को अच्छे से सीखते हैं।और अच्छे से समझ लेते हैं कि क़ुरआने पाक की किस आयते मुबारक से अल्लाह तआ़ला की क्या मुराद है और सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिही व सल्लम अपनी किस ह़दीस शरीफ से अपना क्या मक़स़द बयान फ़रमा रहे हैं।और इन ओ़लमाए किराम को भी चूंकि यह शरीअ़ते कामीला का क़ानून अच्छे से मालूम है कि अकेले किसी को भी अपनी राय से क़ुरआने पाक की तफ़्सीर और अह़ादीसे शरीफा की तशरीह़ ह़राम है इस लिए यह लोग क़ुरआने पाक की तफ़्सीर और अह़ादीसे शरीफा की तशरीह़ करते वक़्त अपने से पहले के इजमाए़ उम्मत का पूरा ख़्याल रखते हैं कि उन बुज़ुर्गों की मुख़ालफ़त ना हो जाए।
चुनानचह तिरमिज़ी शरीफ में तफ्सीरे क़ुरआन पाक के बाब में ह़ज़रत इब्ने अ़ब्बास रदीयल्लाहो तआ़ला अ़न्होमा से रिवायत है कि सरकारे दो आ़लम  स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम का इरशाद है कि जिस ने बग़ैर इ़ल्म के क़ुरआन पाक की तफ्सीर कि वह अपना ठिकाना जहन्नम में तलाश कर ले।हज़रत इमाम तिरमिज़ी शाफ़िई़ रह़मतुल्लाह तआ़ला अ़लैह ने फरमाया कि यह ह़दीस शरीफ ह़सन सहीह है।
 क़ुरआन पाक की तफ्सीर करने के लिए बहुत से उ़लूम जैसे इ़ल्मे ह़दीस,इ़ल्मे लुग़त, इ़ल्मे फिक़ह, इ़ल्मे सर्फ,इ़ल्मे नह़ो,इ़ल्मे मुहावरा, इ़ल्मे तवारीख वग़ैरह की ज़रूरत होती है लेकिन सबसे अहम इसी इ़ल्म कि ज़रूरत होती है कि चौदह सौ साल से भी ज़्यादा अ़र्से से लगातार चले आ रहे अहले सुन्नत वल जमाअ़त के ओ़लमा-ए-ह़क़ और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न यानी "इजमाए उम्मत" ने क्या तफ्सीर की है और उन बुज़ुर्गों के क्या अ़क़ीदे रहे हैं।सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिही व सल्लम ने जो फरमाया है कि "जिस ने बग़ैर इ़ल्म के क़ुरआन पाक की तफ्सीर कि वह अपना ठिकाना जहन्नम में तलाश कर ले" वह यही इ़ल्म है।इजमाए़ उम्मत के अ़क़ाएद के खिलाफ क़ुरआने पाक की तफ़्सीर करना कुफ़्र है।
 रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने सिर्फ क़ुरआन पाक ही नहीं अपनी अह़ादीसे श़रीफ़ा के बारे में भी खबरदार फरमाया है।रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम ने ऊपर तिरमिज़ी शरीफ की ह़दीस शरीफ में साफ तौर पर अपने ऊपर झूठ बांधने वाले के बारे में भी जहन्नम में ठिकाना होने की वई़द सुनाई है।इस बारे में बुखारी शरीफ में भी कई जगह अहादीस आई हैं...

चुनानचह बुखारी शरीफ में इ़ल्म के बयान में हज़रत अली रद़ीयल्लाहो तआ़ला अन्हो से रिवायत है कि रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि मुझ पर झूठ न बोलना क्योंकि जो शख्स मुझ पर झूठ बोले उसका ठिकाना जहन्नम है।
रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम पर झूठ बोलने,या झूठ बांधने का सिर्फ इतना मतलब नहीं है कि सिर्फ झूठी ह़दीस सुनाई जाए बल्कि ह़दीस शरीफ का ग़लत मतलब बयान करना, मनगढ़त ऐसी तशरीह़ (explanation)करना जो रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम का मक़सद या मुराद नहीं है, यह भी रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम पर झूठ बांधना है।जैसे कि बदमज़हब, सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिही व सल्लम कि एक ह़दीस शरीफ बयान करते हैं कि सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिही व सल्लम फ़रमाते हैं"तीन मस्जिदों के अ़लावा किसी मस्जिद के लिए सवारियां ना कसो, मस्जिदे ह़राम, मेरी यह मस्जिद और मस्जिदे अक़स़ा"। इस ह़दीस शरीफ को यह बदमज़हब पेश कर के कहते हैं कि इन तीन मस्जिदों के अ़लावा कहीं भी मज़ारों पर लोग सफर करके नहीं जा सकते जब कि ह़ज़रत इमाम ग़ज़ाली रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़न्हो "अह़याउल उ़लूम शरीफ" में आदाबे सफ़र के बयान में इ़बादत के लिए सफ़र में साफ फ़रमाते हैं कि अंम्बिया अ़लैहिमुस्सलाम, स़ह़ाबह किराम, ताबई़न,और ओ़लमा के मज़ारात कि ज़ियारत भी इसी में(इ़बादत में)दाख़िल है।ज़िंदगी में जिन लोगों की ज़ियारत बाइ़से बरकत यानी बरकत का सबब समझी जाती है मरने के बाद उन के मज़ारात कि ज़ियारत भी बरकत का सबब है।इन ह़ज़रात के मज़ारात कि ज़ियारत के लिए सफ़र करना मना नहीं है।और यह ह़दीस शरीफ इन सफ़रों से मना नहीं करती।इसके अ़लावा ह़ज़रत इमाम ग़ज़ाली रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़नहो आगे यह भी फ़रमाते हैं कि यह ह़दीस शरीफ ख़ास तौर पर मस्जिदों के बारे में है(यानी यह ह़दीस शरीफ़ मज़ारात के बारे में नहीं है)।इस ह़दीस शरीफ़ के मुत़ाबिक़ इन तीन मस्जिदों के अ़लावा दूसरी और मस्जिदों कि फ़ज़ीलत बराबर है(यानी इन तीन मस्जिदों के अ़लावा दूसरी और मस्जिदों कि तरफ इस नीयत से सफ़र करना कि वहां इ़बादत का ज़्यादा सवाब मिलेगा यह स़हीह नहीं है)

दरअसल रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम के फ़रमान कि तशरीह़ करते वक्त काफी डरना चाहिए।चुनानचह सुनन दारमी शरीफ में मुक़द्दमे में यह ह़दीस शरीफ आइ है "मोअ़तमिर अपने वालिद रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़न्हो का यह क़ौल नक़ल फ़रमाते हैं रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम के क़ौल(ह़दीस शरीफ)कि वज़ाहत(तशरीह़)करते वक्त उतनी ही इह़तियात करनी चाहिए जितनी इह़तियात क़ुरआन पाक की तफ़्सीर करते वक़्त कि जाती है।

दरअसल रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम ने साफ बताया है कि मेरी पूरी उम्मत कभी गुमराह नहीं होगी, बल्कि एक जमाअ़त हमेशा क़ियामत तक ईमान पर रहेगी, यह भी रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम ने बताया है कि उस ह़क़ जमाअ़त पर अल्लाह रब्बुल इ़ज़्ज़त की रह़मत का हाथ हमेशा रहेगा, और रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अलैहे व आलेही वसल्लम ने यह भी अच्छे से बताया और समझाया है कि कोई भी इंसान अकेला ना रहे बल्कि मुसलमानों की जमाअ़त के साथ रहे वरना उसे शैतान उचक यानी उठा कर ले जाएगा।तो जो मुसलमानों की जमाअ़त को छोड़कर इजमाए उम्मत के खिलाफ अपनी राय से क़ुरआन व ह़दीस में दखल देता है और अपनी राय से क़ुरआन व ह़दीस से मसले मसाइल निकालने लगता है, उस पर से अल्लाह रब्बुल इ़ज़्ज़त कि रह़मत का हाथ हट जाता है, शैतान उसे उचक ले जाता है, और फिर ऐसा शख्स अहले सुन्नत वल जमाअ़त कि राह से हट कर क़ुरआन व ह़दीस का शैतानी मतलब निकालता है और उसका ठिकाना जहन्नम में हो जाता है।
यहां पर इजमाए़ उम्मत की एक ख़ास अहमियत भी बिल्कुल साफ मालूम हो जाती है कि शरीअ़ते कामीला के मसले मसाएल सिर्फ एक आ़लिम के बोलने या बताने से नहीं निकलते।उस के लिए माशाअल्लाह पूरे इजमाए़ उम्मत की ज़रूरत होती है।अगर किसी मसले में ओ़लमा में इख़्तिलाफ़ नज़र आए कि एक आ़लिम को दोसरा आ़लिम ग़लत़ बोलता है तो फौरन उस बात पर अ़मल करने से पीछे हट जाओ।यही इ़ल्मे फ़िक़ह का उसूल है।हां अगर किसी मसले में इख़्तिलाफ़ हो,लेकिन ओ़लमा यह कहते हों कि यह सिर्फ हमारे इजतेहाद का फ़र्क़ है, हम हमारी जगह स़ह़ीह़ हैं वह अपनी जगह स़ह़ीह़ हैं तो ऐसे मामले में उस बात पर अ़मल किया जा सकता है।
तो अगर कोई आकर यह कहे कि हमें क़ुरआन व ह़दीस को ही मानना है, जैसा कि बदमज़हब अल्लाह वालों से दूर करने के लिए कहते हैं, तो उसे साफ़ और सीधा यह जवाब देना है कि हमें क़ुरआने पाक और अह़ादीसे मुबारक को सरकार स़ल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम के ज़मानए मुबारक से आज तक लगातार हर ज़माने में होते आ रहे ओ़लमाए ह़क़ और औलियाए किराम रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न यानी"इजमाए़ उम्मत" के अ़क़ाएद के मुताबिक मानना है।क्योंकि यही स़िरात़े मुस्तक़ीम है और यही सच्चों के साथ होना है।

तो इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की यह अहमियत मालूम हुई कि क़ुरआन पाक व अह़ादीसे शरीफ़ा इजमाए़ उम्मत से बिल्कुल साथ में जुड़े हुए हैं।बग़ैर "इजमाए़ उम्मत" के क़ुरआन पाक व अह़ादीसे शरीफ़ा से बजाए हिदायत के गुमराही मिलती है।
अब आगे इ़ल्मे फ़िक़ह के तीसरे उस़ूल के बारे में इंशाअल्लाहुलअ़ज़ीज़ "फ़ैस़ला ता क़ियामत" की पांचवीं पोस्ट और "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत" की दोसरी पोस्ट में बात होगी।अगली पोस्ट पढ़ने के लिए निचे लिंक पर क्लिक करें...
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