पांचवीं पोस्ट--इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत--2 (फ़ैस़ला ता क़ियामत--5)

बिस्मिल्लाहिर्रह़मानिर्रह़ीम
नह़मदुहू व नुस़ल्ली व नुसल्लिमु अ़ला रसूलिहिल करीम।
"फ़ैस़ला ता क़ियामत" सिलसिले की चौथी क़िस्त में यानी "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमीयत "इस बयान के पहले ह़िस़्स़े में हमें यह बात मालूम हुई कि क़ुरआन पाक व अह़ादीसे शरीफ़ा इजमाए़ उम्मत से बिल्कुल साथ में जुड़े हुए हैं।बग़ैर "इजमाए़ उम्मत" के क़ुरआन पाक व अह़ादीसे शरीफ़ा से बजाए हिदायत के गुमराही मिलती है।अब"फ़ैस़ला ता क़ियामत" सिलसिले की इस पांचवीं क़िस्त में "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अह़मीयत"का दोसरा ह़िस़्सा पढ़ीए...
आ़म तौर पर इ़ल्मे फ़िक़ह का तीसरा उसूल"इजमाए़ उम्मत" को ही कहा जाता है।लेकिन उपर जैसे गुज़रा कि किसी भी बात का ज़िक्र अच्छे से समझाए बग़ैर नहीं करना चाहिए वैसे ही इ़ल्मे फ़िक़ह के तीसरे उसूल इजमाए़ उम्मत का बयान भी अच्छे से समझा कर करना चाहिए।
जैसा की पहले गुज़रा सच्चे ईमान वालों की जो जमाअ़त ता क़ियामत हर दौर में रहेगी उस जमाअ़त को "अहले सुन्नत वल जमाअ़त" कहते हैं।और इस जमाअ़त में ओ़लमाए किराम और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न भी हर दौर में होते रहे हैं और होते रहेंगे।तो "अहले सुन्नत वल जमाअ़त" में ओ़लमाए किराम और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न की जो जमाअ़त होती है,उस जमाअ़त को "इजमाए़ उम्मत" कहते हैं।तो यहां इजमाए़ उम्मत की दो तारीफ़ें(Definitions) हैं।एक है पूरा इजमाए़ उम्मत, दोसरा है वक़्ती इजमाए़ उम्मत।
पूरा इजमाए़ उम्मत सरकार स़ल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम के ज़मानए पाक से क़ियामत तक हर दौर में अहले सुन्नत वल जमाअ़त में होने वाले ओ़लमाए किराम और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न की पूरी जमाअ़त को कहेंगे।और वक़्ती इजमाए़ उम्मत किसी भी दौर में दुनिया में जो ओ़लमाए किराम और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न अपनी ज़ाहिरी ज़िंदगी में मौजूद होते हैं उनकी जमाअ़त को कहेंगे।बाद वाले ओ़लमाए कराम पर यानी वक़्ती इजमाए़ उम्मत पर यह क़ानून, शरीअ़ते कामिला की तरफ़ से है कि अपने से पहले के जितने भी वक़्ती इजमाए़ उम्मत के गिरोह गुज़र चुके हैं उनकी मुख़ालफ़त ना करें और उनकी राह से जुदा राह ना चलें।
वक़्ती इजमाए़ उम्मत जो हर दौर में मुसलमानों में रहता है उस की अहमियत इतनी ज़्यादा है कि रब तबारक व तआ़ला ने उस के बनाए रखने का ह़ुक्म फ़रमाया है।चुनांचे रब तबारक व तआ़ला सूरह आल इ़मरान शरीफ़ आयत नंबर 104 में इरशाद फ़रमाता है...
وَلۡتَکُنۡ مِّنۡکُمۡ اُمَّۃٌ یَّدۡعُوۡنَ اِلَی الۡخَیۡرِ وَ یَاۡمُرُوۡنَ بِالۡمَعۡرُوۡفِ وَ یَنۡہَوۡنَ عَنِ الۡمُنۡکَرِ ؕ وَ اُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡمُفۡلِحُوۡنَ ﴿۱۰۴﴾
यानी"और तुम में एक गिरोह ऐसा होना चाहिए कि भलाई की त़रफ़ बुलाएं और अच्छी बात का ह़ुक्म दें और बुरी बात से मना करें और यही लोग मुराद को पहंचे।"
और अल्लाह तआ़ला सूरह तौबा शरीफ़ आयत नंबर 122 में इरशाद फ़रमाता है...
وَ مَا کَانَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ لِیَنۡفِرُوۡا کَآفَّۃً ؕ فَلَوۡ لَا نَفَرَ مِنۡ کُلِّ فِرۡقَۃٍ مِّنۡہُمۡ طَآئِفَۃٌ لِّیَتَفَقَّہُوۡا فِی الدِّیۡنِ وَ لِیُنۡذِرُوۡا قَوۡمَہُمۡ اِذَا رَجَعُوۡۤا اِلَیۡہِمۡ لَعَلَّہُمۡ یَحۡذَرُوۡنَ ﴿۱۲۲﴾
यानी"और मुसलमानों से यह तो हो नहीं सकता कि सब कि सब निकलें तो क्यों न हो कि उन के हर गिरोह में से एक जमाअ़त निकले कि दीन की समझ ह़ास़िल करें और वापस आकर अपनी क़ौम को डर सुनाएं इस उम्मीद पर कि वह बचें।"
इन दोनों आयाते मुबारका में अल्लाह तआ़ला ने मुसलमानों पर यह ज़िम्मेदारी डाली है कि क़ियामत तक हर ज़माने में हर इ़लाक़े के मुसलमान अपने अपने इ़लाक़े में ओ़लमाए किराम की एक एक जमाअ़त तैयार करें।और उन को कम से कम इतना इ़ल्म ज़रूर हो कि वह नेकी और बदी और नेक और बद का फ़र्क समझा सकें।इतनी जानकारी ज़रूरी है कि उन के ज़माने में जो बदमज़हब जमाअ़तें कुफ़्र फैला रही हों उन का कुफ़्र साबित कर सकें और "अहले सुन्नत वल जमाअ़त" को बदमज़हबीयत के फ़ितनों से बचा सकें। नेकी का ह़ुक्म दे सकें और बुराई से मना कर सकें।
यह तो आ़म अहले सुन्नत वल जमाअ़त को ह़ुक्म है ही कि अपने इ़लाक़े में इ़ल्मे दीन बाक़ी रखने के लिए इ़ल्मे दीन जानने वालों की एक जमाअ़त अपने इ़लाक़े में रख़ें वरना गुनाहगार होंगे।वैसे अल्लाह तआ़ला का दुनिया में नेकी का ह़ुक्म देने वाला और बुराई से मना करने वाला एक गिरोह हमेशा रहेगा।चुनांचे रब तबारक व तआ़ला सूरह अअ़राफ़ शरीफ़ आयत नंबर 181 में इरशाद में इरशाद फ़रमाता है...
 مِمَّنۡ خَلَقۡنَاۤ اُمَّۃٌ یَّہۡدُوۡنَ بِالۡحَقِّ وَ بِہٖ یَعۡدِلُوۡنَ ﴿۱۸۱}
यानी और हमारे बनाए हुओं में एक गिरोह वह है कि ह़क़ बताएं और उस पर इंसाफ़ करें।
सुबह़ानल्लाह, अल्लाह तआ़ला ने दुनिया पैदा कर के क्या अपनी बड़ाई दिखाई है, अल्लाह तआ़ला के सिवा कोई भी मोह़ताजी से पाक नहीं।आ़म लोग इजमाए़ उम्मत के मोह़ताज, इजमाए़ उम्मत के ओ़लमा अपने से पहले के इजमाए़ उम्मत के मोह़ताज,अइम्मए मुजतहेदीन ताबई़ने किराम और स़ह़ाबह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न के मोह़ताज,ताबई़ने किराम स़ह़ाबह रिदवानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न के मोह़ताज,स़ह़ाबह रिदवानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिही व सल्लम के मोह़ताज,और रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम अल्लाह तआ़ला के मोह़ताज।
यहां इजमाए़ उम्मत की अहमियत बताने के लिए ह़ज़रत स़दरुलअफाद़िल सैय्यद नई़मुद्दीन अशरफी मुरादाबादी रह़मतुल्लाह तआ़ला अ़लैह ने तक़वीयतुलईमान के जवाब में जो अत़यबुलबयान नामी ज़बरदस्त किताब लिखी है।(इस किताब को पढ़ना हर शख़्स के लिए ज़रूरी है,ह़ज़रत अ़ल्लामह मुशताक़ अहमद निज़ामी रह़मतुल्लाह तआ़ला अ़लैह फ़रमाते हैं कि तक़वीयतुलईमान के रद में अत़यबुलबयान से अच्छी शायद ही कोई किताब हो।) उस में इजमाए़ उम्मत की जो ज़रूरत और अहमियत नक़ल फ़रमाई है उसे भी जान लेना ज़रूरी है।
ह़ज़रत स़दरुलअफाद़िल सैय्यद नई़मुद्दीन अशरफी मुरादाबादी रह़मतुल्लाह तआ़ला अ़लैह दो ख़ास वहाबियत के उसूल बताते हुए फ़रमाते हैं "यह दोनों उसूल जिस तरह वहाबियत को रिवाज देने के लिए ज़रूरी हैं,ऐसे ही हर बदमज़हबी के लिए लाज़िम हैं।"(मतलब इन दोनों उसूलों के बग़ैर वहाबियत हो या कोई भी बदमज़हबीयत हरगिज़ पनप नहीं सकती।)और नक़ल फ़रमाते हैं "यह उसूल जैसे वहाबीयह के लिए ज़रूरी हैं उसी क़दर बल्कि उस से ज़्यादा मुसलमानों के लिए ख़तरनाक हैं।इन से गुमराहियों की बेइन्तहा शाख़ें पैदा होती हैं।और दीन का मुस्तह़कम व उस्तवार निज़ाम दरहम बरहम हो जाता है।"
इन दोनों उसूलों में से
1)यह है कि असलाफ़े किराम(यानी पहले के जो मुसलमान गुज़र चुके हैं उनका)और बुजुर्गों(यानी औलियाए किराम रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न) का इत्तेबाअ़ नहीं करना चाहिए। मआ़ज़ल्लाह तआ़ला
और वहाबीयत का दूसरा उसूल
2)यह है कि ओ़लमाए दीन और अइम्मए मुजतहेदीन  की परवाह नहीं करनी चाहिए।हर शख़्स क़ुरआन व ह़दीस समझता है उस के लिए बड़ा इ़ल्म दरकार नहीं।(अइम्मए मुजतहेदीन यह वह ख़ास चार बड़े आ़लिम हैं जिन्हें सैकड़ों सालों से सारे ओ़लमाए किराम अपना इमाम व उस्ताद मानते आए हैं और उन का इत्तेबाअ़ और पैरवी करते आए हैं।)
"मआ़ज़ल्लाह तआ़ला"अल्लाह तआ़ला ह़ुज़ूर ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़नहो के स़दक़े व त़ुफ़ैल में बचाए ऐसी खुली गुमराही वाले उसूलों से।
और यह बात पहले गुज़र चुकी है कि अहले सुन्नत वल जमाअ़त में अल्लाह तआ़ला की तरफ से जो हमेशा ओ़लमाए किराम व औलियाए ए़ज़ाम होते रहे हैं और ता क़ियामत होते रहेंगे उन्हें "इजमाए़ उम्मत"कहते हैं।तो वहाबीयत के लिए "इजमाए़ उम्मत" से हटना ज़रूरी है और अहले सुन्नत वल जमाअ़त के लोगों को अपने ईमान की ह़िफा़ज़त के लिए "इजमाए़ उम्मत"को पकड़ना ज़रूरी है।(इस बह़स को "अत़यबुलबयान" में ज़रूर पढ़ें।)
चुनांचे ह़ज़रत स़दरुलअफाद़िल सैय्यद नई़मुद्दीन अशरफी मुरादाबादी रह़मतुल्लाह तआ़ला अ़लैह इजमाए़ उम्मत की जो अहमियत क़ुरआने पाक में बताई गई है वह नक़ल फ़रमाते हैं, की क़ुरआन पाक की पहली ही सूरह, सूरह फ़ातिह़ा शरीफ़ में अल्लाह तआ़ला रब्बुल इ़ज़्ज़त इरशाद फ़रमाता है...
اِھ٘دِ نَا الصِّرَاطَ الۡمُسۡتَقِیۡمَ ۙ﴿۵﴾صِرَاطَ الَّذِیۡنَ اَنۡعَمۡتَ عَلَیۡہِمۡ ۙ۬
यानी"हम को सीधा रास्ता चला,रास्ता उन का जिन पर तूने एह़सान किया।"
यहां अल्लाह तआ़ला अपने मक़बूल बंदों के रास्ते को अपना सिधा रास्ता फ़रमाता है।और उसकी तरफ हिदायत की दुआ़ तलक़ीन फ़रमाता है।(यह मक़बूल बंदे ही "इजमाए़ उम्मत" हैं।)
बदमज़हब वहाबी क़ुरआन व ह़दीस के नाम पर चाल चलकर अल्लाह वालों के सीधे रास्ते से हटाना चाहते हैं।
और आगे ह़ज़रत स़दरुलअफाद़िल रह़मतुल्लाह तआ़ला अ़लैह ने सूरह निसा शरीफ की आयत नंबर 115 नक़ल फ़रमाई है।रब तबारक व तआ़ला इरशाद फ़रमाता है...
وَ مَنۡ یُّشَاقِقِ الرَّسُوۡلَ مِنۡۢ بَعۡدِ مَا تَبَیَّنَ لَہُ الۡہُدٰی وَ یَتَّبِعۡ غَیۡرَ سَبِیۡلِ الۡمُؤۡمِنِیۡنَ نُوَلِّہٖ مَا تَوَلّٰی وَ نُصۡلِہٖ جَہَنَّمَ ؕ وَ سَآءَتۡ مَصِیۡرًا ﴿۱۱۵﴾
 "और जो रसूल का ख़िलाफ़ करे बाद इसके की ह़क़ रास्ता उस पर खुल चुका,और मुसलमानों की राह से जुदा राह चले,हम उसे उसके ह़ाल पर छोड़ देंगे और उसे दोज़ख में दाखिल करेंगे।
इस आयते मुबारक में मुसलमानों की राह से जुदा होना रसूलल्लाह सल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैही व आलिही व सल्लम की मुख़ालफ़त क़रार दिया गया है।यह आयते मुबारक एक तरह से यह बता रही है कि मुसलमानों की जमाअ़त जो रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम के ज़मानए पाक से क़ियामत तक रहेगी उसकी अहमियत इतनी बड़ी है कि उसकी राह से जुदा होना सीधे सीधे रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम की मुख़ालफ़त है।इस लिए अगर कोई यह कहे की हमें क़ुरआन व ह़दीस को मानना है तो उसे सीधे सीधे यह जवाब देना है कि हमें क़ुरआन व ह़दीस को रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम के ज़मानए पाक से क़ियामत तक हर ज़माने में रहनेवाली मुसलमानों की जमाअ़त यानी "अहले सुन्नत वल जमाअ़त" के अ़क़ीदे के मुताबिक़ मानना है।
माशाअल्लाह हर जगह इजमाए़ उम्मत यानी अल्लाह वालों की ज़रूरत है उन के बग़ैर ना क़ुरआन पाक से हिदायत ना ह़दीस शरीफ से हिदायत।चुनांचे ...
रब तबारक व तआ़ला क़ुरआने पाक में पहले पारे में सूरह बक़रह शरीफ़ में आयत नंबर 26 और 27 में इरशाद फ़रमाता है...
یُضِلُّ بِہٖ کَثِیۡرًا ۙ وَّ یَہۡدِیۡ بِہٖ کَثِیۡرًا ؕ وَ مَا یُضِلُّ بِہٖۤ اِلَّا الۡفٰسِقِیۡنَ ﴿ۙ۲۶﴾الَّذِیۡنَ یَنۡقُضُوۡنَ عَہۡدَ اللّٰہِ مِنۡۢ بَعۡدِ مِیۡثَاقِہٖ ۪ وَ یَقۡطَعُوۡنَ مَاۤ اَمَرَ اللّٰہُ بِہٖۤ اَنۡ یُّوۡصَلَ وَ یُفۡسِدُوۡنَ فِی الۡاَرۡضِ ؕ اُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡخٰسِرُوۡنَ ﴿۲۷﴾
यानी "अल्लाह तआ़ला बहुतेरों (यानी बहुतों) को इससे(यानी क़ुरआने पाक से) गुमराह करता है और बहुतेरों को इससे(यानी क़ुरआने पाक से) हिदायत फ़रमाता है,और इससे(यानी क़ुरआने पाक से) उन्हें(उन लोगों को) गुमराह करता है जो बेह़ुक्म (यानी फ़ासिक़) हैं।वह(यानी फ़ासिक़ वह हैं) जो अल्लाह तआ़ला के अ़हद(यानी अल्लाह तआ़ला से किए हुए वादे) को तोड़ देते हैं पक्का होने के बाद,और काटते हैं उस चीज़ को जिस के जोड़ने का ख़ुदा ने ह़ुक्म दिया है और ज़मीन में फ़साद फ़ैलाते हैं,वही नुक़सान में हैं।"
यहां पर रब तबारक व तआ़ला साफ बता रहा है कि बहुतों को क़ुरआन पाक से गुमराह कर देता है(और अह़ादीसे शरीफ़ा से भी, क्योंकि क़ुरआन व ह़दीस एक दूसरे से हर्गिज़ जुदा नहीं हैं) और बहुतों को क़ुरआन पाक (व अह़ादीसे शरीफ़ा) से हिदायत अ़त़ा फ़रमा देता है।क़ुरआन पाक का यह बयान बहुत अहम है क्योंकि यहां पर सबसे अहम बात(हिदायत) का अल्लाह तआ़ला ने ख़ुलासा फ़रमा दिया है कि किसे हिदायत देता है और किसे नहीं देता।सारे इंसानों और जिन्नातों को अगर सबसे ज़्यादा ज़रूरी कोई चीज़ है तो वह है हिदायत, यानी अल्लाह तआ़ला की बंदगी की फ़रमांबरदारी की राह चलना।चुनानचह रब तबारक व तआ़ला इस जगह हमें बता रहा है कि जो फ़ासिक़ होते हैं उन्हें हिदायत नहीं देता और फिर यहां किसे फ़ासिक़ फ़रमाया गया है इस का भी ख़ुलासा कर के अल्लाह तआ़ला ने बता दिया है।चुनानचह अल्लाह तआ़ला इस आयते मुबारक में फ़ासिक़ों की पहली निशानी बताते हुए फ़रमाता है फ़ासिक़ वह हैं जो अल्लाह तआ़ला के अ़हद(यानी अल्लाह तआ़ला से किए हुए वादे) को तोड़ देते हैं पक्का होने के बाद
चुनानचह अल्लाह तआ़ला ने हमें क़ुरआने पाक में सूरह अअ़राफ़ शरीफ में आयत नंबर 172 में इस वाकये की ख़बर दी है कि ह़ज़रते आदम अ़लैहिस्सलाम की पीठ मुबारक से रब तबारक व तआ़ला ने सारे इंसानों को चिंटियों की तरह निकाला था और उन से अपने बारे में पूछा था
 اَلَسۡتُ بِرَبِّکُمۡ ؕ
 "क्या मैं तुम्हारा रब नहीं"
 तो सब ने जवाब दिया था
 بَلٰی ۚۛ 
क्यों नहीं।
फिर सब को दोबारा ह़ज़रते आदम अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम की पीठ में रख दिया था।यह वादा सारे इंसानों से इस लिए लिया गया था कि कोई यह ना कह सके कि मैं या! अल्लाह तेरे बारे में नहीं जानता था।यहां अल्लाह तआ़ला बता रहा है कि वह फ़ासिक़ जिन्हें अल्लाह तआ़ला क़ुरआन व ह़दीस से गुमराह कर देता है वह हैं जो अल्लाह तआ़ला से किया हुआ वादा तोड़ देते हैं पक्का होने के बाद, तो रब तआ़ला ने ख़ुद सब लोगों से वादा लिया है कि मैं ही तूम सब का रब हूं,अब जबकि रब तबारक व तआ़ला ने जब ख़ुद ही सबसे वादा लिया है तो इस से पक्का वादा कौनसा हो सकता है। और आगे दूसरी उनकी निशानी रब तबारक व तआ़ला यह बताता है कि काटते हैं उस चीज़ को जिस के जोड़ने का ख़ुदा ने ह़ुक्म दिया है और ज़मीन में फ़साद फ़ैलाते हैं,वही नुक़सान में हैं।"
चुनानचह रब तबारक व तआ़ला सूरह तौबा शरीफ़ में इरशाद फ़रमाता है...
یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰہَ وَ کُوۡنُوۡا مَعَ الصّٰدِقِیۡنَ ﴿۱۱۹﴾
"ए इमान वालो अल्लाह तआ़ला से डरो और सच्चों के साथ हो जाओ"
तो अल्लाह तआ़ला का ह़ुक्म सच्चों से रिश्ता जोड़ने का है,जो इसे तोड़ते हैं उन्हें क़ुरआन व ह़दीस से भी गुमराही ही मिलती है। इसीलिए शैतान मरदूद अपने चेलों के ज़रीए इस बात की भरपूर कोशिश करता है कि किसी तरह सच्चों से यानी इजमाए़ उम्मत से लोगों का रिश्ता टूट जाए, इसके बाद क़ुरआन व ह़दीस से भी सिर्फ गुमराही ही मिलेगी।

इसी लिए जो अपनी आ़क़िबत की भलाई चाहते हैं वह नेकों के साथ होने की बड़ी तमन्ना रखते हैं।चुनांचे जो लोग अपनी आ़क़िबत की भलाई चाहते हैं अल्लाह तआ़ला उनके बारे में सूरह माइदा शरीफ़ आयत नंबर 84 में इरशाद फ़रमाता है...

وَ مَا لَنَا لَا نُؤۡمِنُ بِاللّٰہِ وَ مَا جَآءَنَا مِنَ الۡحَقِّ ۙ وَ نَطۡمَعُ اَنۡ یُّدۡخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ الۡقَوۡمِ الصّٰلِحِیۡنَ ﴿۸۴﴾
यानी"और हमें क्या हुआ कि हम ईमान न लाएं अल्लाह तआ़ला पर और उस ह़क़ पर कि हमारे पास आया और हम त़मअ़ करते हैं कि हमें हमारा रब तआ़ला नेक लोगों के साथ दाख़िल करे।"
त़मअ़ बहुत ज़्यादा चाहने को कहते हैं।
और अल्लाह तआ़ला सूरह माएदा शरीफ़ आयत नंबर 56 में इरशाद फ़रमाता है...
 مَنۡ یَّتَوَلَّ اللّٰہَ وَ رَسُوۡلَہٗ وَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا فَاِنَّ حِزۡبَ اللّٰہِ ہُمُ الۡغٰلِبُوۡنَ ﴿٪۵۶﴾
यानी"जो अल्लाह तआ़ला और उस के रसूल स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम और मुसलमानों को अपना दोस्त बनाए तो बेशक अल्लाह तआ़ला ही का गिरोह(यानी जमाअ़त) ग़ालिब है।"
तो इस आयते मुबारक के मुत़ाबिक़ सिर्फ अल्लाह तआ़ला और उस के रसूल स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम का नाम लेना(यानी क़ुरआन ह़दीस, क़ुरआन ह़दीस कहना)काफी नहीं बल्कि सच्चे मुसलमानों से भी दिल की गहराई से मुह़ब्बत रखनी पड़ेगी।
"आज दुनिया की सबसे बड़ी जिहालत यह है कि आदमी क़ुरआन ह़दीस, क़ुरआन ह़दीस कहता रहे और सच्चे ईमान वालों की जमाअ़त छोड़ दे"।
जब कि रब तबारक व तआ़ला सूरह लुक़मान शरीफ़ आयत नंबर 15 में इरशाद फ़रमाता है...
وَّ اتَّبِعۡ سَبِیۡلَ مَنۡ اَنَابَ اِلَیَّ ۚ
यानी"और उसकी राह चल जो मेरी त़रफ़ रुजूअ़ लाया।"
यानी जो लोग दुनिया में पैदा होने के बाद दुनिया की मोह़ब्बत झोड़ कर पलट कर अल्लाह तआ़ला की राह चलते हैं उन की राह चलने का रब तबारक व तआ़ला सब लोगों को ह़ुक्म फ़रमाता है।और रब तबारक व तआ़ला इस पर बड़े इनआ़म की बशारत भी देता है।चुनांचे रब तबारक व तआ़ला सूरह तौबा शरीफ़ आयत नंबर 100 में इरशाद फ़रमाता है...
وَ السّٰبِقُوۡنَ الۡاَوَّلُوۡنَ مِنَ الۡمُہٰجِرِیۡنَ وَ الۡاَنۡصَارِ وَ الَّذِیۡنَ اتَّبَعُوۡہُمۡ بِاِحۡسَانٍ ۙ رَّضِیَ اللّٰہُ عَنۡہُمۡ وَ رَضُوۡا عَنۡہُ وَ اَعَدَّ لَہُمۡ جَنّٰتٍ تَجۡرِیۡ تَحۡتَہَا الۡاَنۡہٰرُ خٰلِدِیۡنَ فِیۡہَاۤ اَبَدًا ؕ ذٰلِکَ الۡفَوۡزُ الۡعَظِیۡمُ ﴿۱۰۰﴾
यानी"और सब में अगले पहले मुहाजिर और अनसार और जो भलाई के साथ उनके पैरू हुए,अल्लाह तआ़ला उन से राज़ी और वह अल्लाह तआ़ला से राज़ी और उन के लिए तैयार कर रखे हैं बाग़ जिनके निचे नहरें बहें हमेशा हमेशा उस में रहें,यही बड़ी कामयाबी है।"
इस आयते मुबारक में भी रब तबारक व तआ़ला ने क़ुरआन पाक और अह़ादीस का नाम ना लेकर अपने नेक बंदों की पैरवी यानी तक़लीद करने का ह़ुक्म दीया है।जबकि बदमज़हब नेक लोगों की तक़लीद से रोकते हैं और बहाना यह बनाते हैं कि हमें क़ुरआन व ह़दीस को मानना है।

चुनानचह "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अह़मीयत"इस बयान में अब तक इ़ल्मे फ़िक़ह के तीनों उसूल हमें इस तरह मिले।
पहला:क़ुरआने पाक मअ़ इजमाए़
उम्मत(यानी क़ुरआने पाक इजमाए़ उम्मत के साथ)
 दूसरा:अह़ादीसे शरीफा मअ़ इजमाए़ उम्मत
तीसरा:इजमाए़ उम्मत मअ़ इजमाए़ उम्मत(यानी किसी ख़ास वक़्त का इजमाए़ उम्मत पूरे इजमाए़ उम्मत के साथ)
यहां पर ईमान की ह़िफा़ज़त के लिए एक बहुत ही ख़ास़ मसला ज़रूर जान लें।"किसी भी मसले के बारे में इंसान जानता हो या ना जानता हो, चाहे वह मसला उस के लिए नया हो या पूराना हो,शरीअ़त के मुत़ाबिक़ उसे यही कहना पड़ेगा कि मेरा इस मसले और हर मसले के बारे में वही अ़क़ीदा है जो"इजमाए़ उम्मत" का अ़क़ीदा है।"
आगे"फ़ैस़ला ता क़ियामत" की छठी क़िस्त और"इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमियत"की तीसरी क़िस्त में इ़ल्मे फ़िक़ह के बारे में क़ुरआन पाक में जो ख़ास आयते मुबारक आई है और उसके साथ ही बुख़ारी शरीफ़ की शुबहा वाली चीज़ों से दूर करने वाली ह़दीस शरीफ़ का इंशाअल्लाहुलअ़ज़ीज़ ज़िक्र होगा।इन के ज़िक्र के बग़ैर इ़ल्मे फ़िक़ह का बयान अधूरा है।क़ियामत तक लोग अपने आप को बदमज़हबों से कैसे बचाएं इस बात का इनमें ज़िक्र किया गया है।इ़ल्मे फ़िक़ह के चौथे उसूल क़ियास का भी इन में ज़िक्र है।
क़ियास का बयान दरह़क़ीक़त पूरे इ़ल्मे फ़िक़ह का निचोड़ है।जिसने क़ियास को ना समझा उसने दरह़क़ीक़त इ़ल्मे फ़िक़ह को ही नहीं समझा।बदमज़हबीयत के ख़िलाफ़ इसकी मार इतनी ज़बरदस्त है कि बदमज़हब "इजमाए़ उम्मत"के साथ "क़ियास" की भी मुख़ालिफ़त करते हैं।इस लिए आगे के बयानात ज़रूर पढ़ें।अगले बयान के लिए निचे लिंक पर क्लिक करें...
https://www.gchishti.com/2019/09/3-6.html

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