तीसरी पोस्ट--ईमान और कुफ़्र की व्याख्या(Definition) (फ़ैसला ता क़ियामत--3)



बिस्मिल्लाहिर्रह़मानिर्रह़ीम
नह़मदुहू व नुस़ल्ली व नुसल्लिमु अ़ला रसूलिहिल करीम।
"फ़ैस़ला ता क़ियामत" सिलसिले की पहली क़िस्त में इस सवाल के बारे में बात हुई थी कि इस उम्मत में इतने सारे फ़िरक़ों के बीच सच्चा फ़िरक़ा कौन सा है?और दोसरी क़िस्त में इस सवाल के जवाब के बारे में बात हुई थी कि"आज का या किसी भी दौर का कोई शख़्स अगर यह जानना चाहता है कि इस उम्मत में कौन सी जमाअ़त सच्चे ईमान वालों की है तो वह शख़्स यह बात देखे कि कौन सी जमाअ़त रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के ज़मान-ए-मुबारक से लगातार हर दौर में रही है और रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम को दीन की समझ को तक़सीम करने वाला "क़ासिम"मानती है।और स़ह़ाबह कराम, ताबई़ने कराम, तबअ़ ताबई़ने कराम रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न की पैरवी करने वाली यानी उन बुज़ुर्गों के त़रीक़े पर रही है।"
अब इस तीसरी क़िस्त से उन बातों उन उ़लूम के बारे में लिखना शुरू हो रहा है जिन को ना सीखने ना समझने ख़ास तौर पर ना मानने की वजह से इंसान बदमज़हब यानी गुमराह फ़िरक़ों वाला बन जाता है।अल्लाह तआ़ला मुझे ह़क़ लिखने और पढ़ने वालों को ह़क़ समझने की तौफ़ीक़ अ़त़ा फ़रमाए।आमीन!बतुफ़ैले सैय्येदिल-मुरसलीन स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम
यह बातें या उ़लूम क़ियामत तक बदमज़हबी से बचने के लिए हर शख़्स को सीखना ज़रूरी है।इस लिए इन बातों को ख़ूद भी पढ़ें।और इस की लिंक दोसरों से भी शेयर करें।
ख़ास तौर पर चार बातें ऐसी हैं जिन को अच्छे से समझना हर दौर में हर शख़्स के लिए ज़रूरी है...
1)कुफ्र और ईमान कि ताअ़रीफ यानी व्याख्या(Definition) जानना।
2)इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमीयत जानना।(यह बयान लम्बा है, कई पोस्ट में होगा, लेकिन हर इंसान के लिए जानना ज़रूरी है।)
3)इस सवाल का जवाब कि "शरीअ़त पहले है या त़रीक़त"?
4)आयाते मोतशाबिहात की पहचान।
जिस इंसान को इन सब बातों के बारे में इ़ल्म ना हो, उस के लिए ज़रूरी है कि वह इन सब के बारे में पढ़ने या सुनने में सुस्ती ना करे।

कंज़ुल-अ़म्माल शरीफ़ में इ़ल्म के बयान में यह फ़रमाने रसूल स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम है"इ़ल्म(यानी इ़ल्मेदीन) ह़ास़िल करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है।"
ओ़लमाए किराम फ़रमाते हैं कि जो बातें फ़र्ज़ हैं उन के बारे में इ़ल्म सीखना फ़र्ज़ है, जो बातें वाजिब हैं उन के बारे में इ़ल्म सीखना वाजिब है, जो बातें नफ़ल हैं उन के बारे में इ़ल्म सीखना नफ़ल है।अब चुंकि ईमान की ह़िफा़ज़त क़ियामत तक हर इंसान पर फ़र्ज़ है इस लिए अगर इन चारों बातों के ना जानने की वजह से  लोग बदमज़हब बन रहे हैं तो इन चारों बातों के बारे में इ़ल्म ह़ास़िल करना भी फ़र्ज़ है।अल्लाह तआ़ला सूरह बक़रह शरीफ़ आयत नंबर 286 में इरशाद फ़रमाता है...
لَا یُکَلِّفُ اللّٰہُ نَفۡسًا اِلَّا وُسۡعَہَا ؕ
यानी "अल्लाह तआ़ला किसी जान पर बोझ नहीं डालता मगर उस की त़ाक़त भर।"
मतलब अल्लाह तआ़ला ने जितनी भी बातें बंदों पर फ़र्ज़ की हैं बंदे उन्हें पूरा कर सकते हैं।
और रब तबारक व तआ़ला सूरह आल इ़मरान शरीफ़ आयत नंबर 139 में इरशाद फ़रमाता है...
وَ لَا تَہِنُوۡا وَ لَا تَحۡزَنُوۡا وَ اَنۡتُمُ الۡاَعۡلَوۡنَ اِنۡ کُنۡتُمۡ مُّؤۡمِنِیۡنَ ﴿۱۳۹﴾
यानी "और ना सुस्ती करो और ना ग़म खाओ तुम ही ग़ालिब आओगे अगर ईमान रखते हो।"
इस आयते मुबारक में ग़ालिब आने, कामयाब होने के लिए सबसे पहले सुस्ती ना करने का ह़ुक्म है तो इंसान को बदमज़हबों को जवाब दे कर उन पर ग़ालिब आने के लिए इन चारों बातों का इ़ल्म सीखने में ज़रा भी सुस्ती व काहिली नहीं करना चाहिए।
अगर किसी को कुफ़्र और ईमान की व्याख्या(Definition) ही नहीं मालूम होगी तो वह काफ़िर और मोमिन में फ़र्क़ कैसे कर पाएगा और बदमज़हब काफ़िरों से ख़ूद को कैसे बचा पाएगा?इस लिए सबसे पहले कुफ्र और ईमान कि ताअ़रीफ के बारे में बात करते हैं।दोनों एकदूसरे कि ज़िद यानी विरुध्द(opposite)हैं।दोनों की तारीफ एक साथ अगर होगी तो समझने में आसानी होगी क्योंकि हर चीज़ की पहचान उस की ज़िद से होती है, चुनांचे
ईमान यह है कि अल्लाह तआ़ला व रसूल स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम की बताई हुई तमाम बातों का यक़ीन करे और दिल से सच जाने। अगर किसी ऐसी एक बात का भी इन्कार है,जिसके बारे में यक़ीनी तौर पर मालूम है कि यह इस्लाम की बात है तो यह कुफ्र है जैसे क़ियामत, फरिश्ते, जन्नत, दोज़ख, ह़िसाब को न मानना या नमाज़, रोज़ा, ह़ज, ज़कात को फ़र्ज़ न जानना या कुरआ़न पाक को अल्लाह तआ़ला का कलाम न समझना, काबा शरीफ, कुरआ़न पाक या किसी नबी या फ़रिश्ते की तौहीन करना या किसी सुन्नत को हल्का बताना, शरीअ़त के हुक्म का मज़ाक़ उड़ाना और ऐसी ही इस्लाम की किसी मालूम व मशहूर बात का इन्कार करना या इसमें शक करना यक़ीनन कुफ्र है।(क़ानूने शरीअ़त)
अल्लाह तआ़ला व रसूल स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम की बताई हुई तमाम बातों को ज़रुरीयाते दीन कहते हैं।किसी एक भी ज़रूरते दीन के इंकार करने से आदमी काफ़िर हो जाता है,फिर चाहे अल्लाह तआ़ला व रसूल स़ल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम कि दूसरी सारी बातों को मानता रहे, उसे काफ़िर ही कहेंगे।कुफ़्र तो बहुत हैं लेकिन चार कुफ़्र कि ख़ास क़िस्में ओ़लमा ने ज़िक्र कि हैं जिन में आ़म तौर पर लोग गिरफ्तार होते हैं।
पहला:-दहरीयत यानी नास्तिकता, जो लोग दहरीया या नास्तिक होते हैं वह ख़ुदा के वजूद को ही नहीं मानते।किसी ने ज़मीन व आसमान को या सारे आ़लम को पैदा किया है इस पर उन्हें यक़ीन ही नहीं होता।

दूसरा:-कुफ़्र की दोसरी क़िस्म है शिर्क।
"शिर्क" यह "लफ़्ज़" शिर्कत से बना है।मिसाल के तौर पर जैसे किसी घर या ज़मीन के एक से ज़्यादा मालिक अगर हैं तो यह कहा जाता है कि इस घर या ज़मीन की मिल्कियत में एक से ज़्यादा लोग शरीक हैं,या कहा जाए कि इस घर या ज़मीन की मिल्कियत में एक से ज़्यादा लोगों की शिर्कत है।
शरीअ़त की इस़्तिलाह़(यानी शरीअ़त की लुग़त, Dictionary) में शिर्क की कई क़िस्में हैं... 
1)शिर्क की पहली क़िस्म यह है कि अल्लाह तआ़ला की ज़ात यानी हस्ती में किसी को शरीक माना जाए।
मिसाल के तौर पर हम लोगों को रहने के लिए जगह की ज़रूरत है।हम लोगों को खाने के लिए खाना, पीने के लिए पानी, सांस लेने के लिए हवा की ज़रूरत है।यह सब हम लोगों की मोह़ताजी है।अल्लाह तआ़ला सबसे बेमिसाल अलग है।उसे रहने के लिए जगह की ज़रूरत ही नहीं है।जब जगह नहीं थी तब भी अल्लाह तआ़ला था।जगह तो उस अ़ज़्ज़ व जल्ल ने पैदा की है।वह खाने पीने सोने थकने सांस लेने किसी जगह में समाने से पाक है।अल्लाह तआ़ला की हस्ती-ए-मुबारक हर मिसाल से पाक है।अल्लाह तआ़ला की ज़ात को किसी और की मिस्ल(जैसा) मानना अल्लाह तआ़ला की ज़ात यानी हस्ती में "शिर्क"है।यानी शिर्के ज़ाती है।
कुछ लोग यह कहते हैं कि अल्लाह तआ़ला हर जगह है।तो इसका मतलब अगर यह लेते हैं कि अल्लाह तआ़ला की हस्ती-ए-मुबारक ख़ूद हर जगह है तो यह शिर्क हो जाएगा।क्योंकि जगह में आना, समाना हमारी जैसी मख़लूक़ के लिए है।ऐसा मानने से अल्लाह तआ़ला हमारी मिस्ल यानी हमारी त़रह़ माना जाएगा, और यह शिर्क है।(मख़लूक़ उसे कहते हैं जिसे अल्लाह तआ़ला ने पैदा किया है।)
और अगर"अल्लाह तआ़ला हर जगह है" यह बोलने का मतलब यह लिया जाए कि अल्लाह तआ़ला की ह़ुकूमत हर जगह है, वह हर जगह को हर वक़्त देखता है तो यह शिर्क नहीं है।
दरह़क़ीक़त अल्लाह तआ़ला की हस्ती-ए-मुबारक ऐसी है कि किसी भी घेरे में आ ही नहीं सकती।यहां तक कि अ़क़्ल भी उसे नहीं घेर सकती।इस लिए अ़क़्ल भी उस अ़ज़्ज़ व जल्ल के ज़ाते मुबारक की ह़क़ीक़त समझने से आ़जिज़ है।चुनांचे रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम का फ़रमान है:अल्लाह अ़ज़्ज़ व जल्ल की नेअ़मतों(मख़लूक़ात) में ग़ौर व फ़िक्र करो और अल्लाह तआ़ला की हस्ती में गौ़र व फ़िक्र ना करो कि हिलाक(बर्बाद) हो जाओगे।
तो अल्लाह तआ़ला यक्ता और बेमिसाल है।चुनांचे अपनी अ़क़्ल का इस्तेमाल करके अल्लाह तआ़ला की मख़लूक़ात में ग़ौरो फ़िक्र करके अल्लाह तआ़ला को पहचानने में अ़क़्ल की मदद लो।


2)शिर्क की दोसरी क़िस्म यह है कि अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात में किसी को शरीक माना जाए।
अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात यानी गुणों में भी कोई उस अ़ज़्ज़ व जल्ल का शरीक नहीं।अल्लाह तआ़ला ज़िंदा है।इ़ल्म वाला है।सुनता है।कलाम फ़रमाता है।देखता है।इरादा फ़रमाता है।क़ुदरत वाला है।और भी अल्लाह तआ़ला की स़िफ़तें हैं।
लेकिन जिस तरह़ अल्लाह तआ़ला की ज़ात बेमिसाल है वैसे ही अल्लाह तआ़ला की स़िफ़तें भी बेमिसाल हैं।
उपर जो अल्लाह तआ़ला की स़िफ़तें बताई गई हैं जैसे, अल्लाह तआ़ला ज़िंदा है।इ़ल्म वाला है।सुनता है।वग़ैरह वग़ैरह कई स़िफ़ात मख़लूक़ में भी हैं।लेकिन अल्लाह तआ़ला कि तमाम स़िफ़ात में चार ख़ूबीयां हैं जो किसी भी मख़लूक़ की स़िफ़ात में नहीं।अगर इन चार में से किसी एक भी ख़ूबी को मख़लूक़ की स़िफ़त के लिए मान लिया जाए तो शिर्क हो जाएगा।
१)अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात की पहली ख़ूबी"क़दीम"यानी "अज़ली" होना।यानी जो हमेशा से हो, पैदा ना किया गया हो।अल्लाह तआ़ला की हर स़िफ़त अल्लाह तआ़ला की हस्ती के साथ हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगीं।
मख़लूक़ की स़िफ़तें पैदा की गई हैं, हमेशा से नहीं हैं।इसे ह़ादिस कहते हैं।
२)अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात की दूसरी ख़ूबी है"ज़ाती" होना।
यानी अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात किसी और की दी हुई नहीं हैं।अल्लाह तआ़ला अपनी ज़ात और स़िफ़ात के साथ हमेशा से है।
किसी और की दी हुई चीज़ को "अ़त़ाई" कहते हैं।
३)अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात की तीसरी ख़ूबी है"अबदी"यानी ग़ैर फ़ानी होना।
जिस त़रह़ अल्लाह तआ़ला अपनी ज़ात और स़िफ़ात के साथ हमेशा से है वैसे ही अल्लाह तआ़ला अपनी ज़ात और स़िफ़ात के साथ हमेशा रहेगा।अल्लाह तआ़ला की किसी स़िफ़त को ज़वाल नहीं आ सकता।
४)अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात की चौथी ख़ूबी है"ला मह़दूद"यानी बेइंतहा होना।यानी जिस की कोई इंतहा कोई ह़द नहीं।मिसाल के लिए अल्लाह तआ़ला का इ़ल्म बेइंतहा है।वह अ़ज़्ज़ व जल्ल मौजूद ग़ैरमौजूद सब कुछ जानता है।उस अ़ज़्ज़ व जल्ल की रह़मत बेइंतहा बड़ी है।उस अ़ज़्ज़ व जल्ल का क़हर व ग़ज़ब भी बेइंतहा बड़ा है।
तो साफ़ ज़ाहिर है कि अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात हमेशा से यानी बग़ैर किसी के पैदा किए, ज़ाती यानी बग़ैर किसी के अ़त़ा किए,अबदी यानी अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात का ख़त्म होना नामुमकिन और अल्लाह तआ़ला की स़िफ़ात बेइंतहा बड़ी हैं।
जबकि मख़लूक़ की स़िफ़ात अल्लाह तआ़ला की पैदा की हुई, अल्लाह तआ़ला की अ़त़ा की हुई हैं।
मख़लूक़ की हर स़िफ़त की ह़द है।अल्लाह तआ़ला का ज़िंदा रहना बेइंतहा है।वह अ़ज़्ज़ व जल्ल हमेशा से ज़िंदा है और हमेशा ज़िंदा रहेगा।जब कि मख़लूक़ पहले नहीं थी बाद में पैदा की गई।अल्लाह तआ़ला का इ़ल्म बेइंतहा है जब कि मख़लूक़ के इ़ल्म की ह़द व इंतहा है।अल्लाह तआ़ला भी सुनता है।मख़लूक़ में भी सुनने की त़ाक़त है।लेकिन अल्लाह तआ़ला की सुनने की त़ाक़त बेइंतहा है।अल्लाह तआ़ला सारी मख़लूक़ की सारी आवाज़ों को हर वक़्त सुनता है।बंदा बेहरा हो सकता है।अल्लाह तआ़ला की किसी स़िफ़त को ज़वाल नहीं।इसी त़रह़ अल्लाह तआ़ला हर वक़्त हर मौजूद चीज़ो को देखता है।उस अ़ज़्ज़ व जल्ल से कुछ भी छुपा नहीं रह सकता।बंदा बोल सकता है।अल्लाह तआ़ला कलाम फ़रमाता है।बंदा एक वक़्त में एक ही बात बोल सकता है।अल्लाह तआ़ला एक ही वक़्त में चाहे तो सारी मख़लूक़ के लोगों से अलग अलग कलाम फ़रमा सकता है।बंदा इरादा करता है और अल्लाह तआ़ला की दी हुई त़ाक़त से कुछ कर भी सकता है लेकिन अल्लाह तआ़ला जो चाहे वह कर सकता है और उस अ़ज़्ज़ व जल्ल की त़ाक़त बेइंतहा है और उस की त़ाक़त किसी और की अ़त़ा की हुई नहीं है।जन्नती जन्नत में जो चाहेंगे वह हो जाएगा लेकिन दरह़क़ीक़त वह करने वाला रब तआ़ला ही होगा।बल्कि किसी का भी चाहना अस़ल में अल्लाह तआ़ला की मरज़ी से ही है।जब तक अल्लाह तआ़ला की मरज़ी ना हो बंदा कुछ चाह भी नहीं सकता।बंदे दुनिया में एकदूसरे की मदद करते हैं तो दरह़क़ीक़त वह मदद अल्लाह तआ़ला की ही है क्योंकि बंदों के पास जो एकदूसरे को मदद करने की त़ाक़त है वह अल्लाह तआ़ला की ही दी हुई है यहां तक कि बंदों के दिलों में जो एकदूसरे को मदद करने का जज़्बा इरादा आता है वह भी अस़ल में अल्लाह तआ़ला की त़रफ़ से ही है।

3)शिर्क की तीसरी क़िस्म यह है कि अल्लाह तआ़ला के किसी भी फ़ेल यानी कुछ करने में किसी को शरीक माना जाए।
मिसाल के लिए कुछ पैदा करना।कोई और अल्लाह तआ़ला की त़रह़ कुछ भी नई चीज़ पैदा नहीं कर सकता।रिज़्क़ यानी रोज़ी देना।किसी के बस की बात नहीं की अल्लाह तआ़ला के दिए बग़ैर कोई भी दोसरों के लिए दूर की बात है ख़ुद अपने लिए भी एक अनाज का दाना भी ह़ास़िल कर ले।ग़रज़ कि एक ज़र्रा भी अल्लाह अ़ज़्ज़ व जल्ल की मरज़ी के बग़ैर नहीं हिल सकता।जब अल्लाह तआ़ला किसी ज़र्रे को हिलाता है तभी वह ज़र्रा हिलता है।
तो अल्लाह तआ़ला के किसी भी फ़ेल(कुछ भी करने) में कोई भी शरीक नहीं।
4)शिर्क की चौथी क़िस्म है अल्लाह अ़ज़्ज़ व जल्ल के ह़ुक्म में किसी को शरीक मानना।
रब तबारक व तआ़ला सूरह कहफ़ आयत नंबर 26 में इरशाद फ़रमाता है...
وَّ لَا یُشۡرِکُ فِیۡ حُکۡمِہٖۤ اَحَدًا ﴿۲۶﴾
यानी "और वह अपने ह़ुक्म में किसी को शरीक नहीं करता।"
रब तबारक व तआ़ला जो चाहता है ह़ुक्म फ़रमाता है।वह अ़ज़्ज़ व जल्ल किसी का बंधा हुआ या किसी का मजबूर नहीं।किसी उम्मत में किसी चीज़ को जाएज़ रखता है तो वही चीज़ दोसरी उम्मत में ह़राम कर देता है।किसी भी बात का अच्छा या बुरा होना बंदों की अ़क़्लों पर मुनह़सिर नहीं है बल्कि जिस बात का अल्लाह तआ़ला ने ह़ुक्म फ़रमाया वह अच्छी है और जिस बात से अल्लाह तआ़ला ने मना फ़रमाया है वह बुरी है।
चाहे कोई कितना ही बड़ा बादशाह क्यों ना हो उस का ह़ुक्म अल्लाह तआ़ला के ह़ुक्म के बराबर नहीं हो सकता।
अल्लाह तआ़ला के ह़ुक्म के बराबर किसी और के ह़ुक्म को समझना अल्लाह तआ़ला के अह़काम में शिर्क करना हो जाएगी।
तीसरा:-कुफ्र कि तिसरी क़िस्म है किसी भी नबी अ़लैहिमुस्सलाम कि अदना सी भी तौहीन करना।जैसे शरीअ़ते कामीला यह बताती है कि अल्लाह तआ़ला ने अपने नबीयों अ़लैहिमुस़्स़लातो वस्सलाम को ग़ैब का इ़ल्म अ़त़ा फ़रमाया है,और कोई यह कहे की नबीयों अ़लैहिमुस़्स़लातो वस्सलाम को ग़ैब का बिल्कुल भी इ़ल्म नहीं तो यह नबीयों अ़लैहिमुस़्स़लातो वस्सलाम की तौहीन हो जाएगी, और यह कुफ़्र हो जाएगा।


चौथा:-कुफ्र कि चौथी क़िस्म है कोई भी ऐसा काम करना जो शरीअ़त के मुताबिक कुफ्र कि दलील हो।जैसे मुंह से कुफ्र बके फिर चाहे यह कहता हो कि मेरा ऐसा अ़क़ीदा नहीं है।जैसे कुफरियह अशआ़र वाले गाने गाना।इसी तरह वह बातें जो कुफ्र की निशानी हैं जब उनको करेगा काफ़िर समझा जायगा,जैसे जनेऊ डालना जटा रखना, सलीब(ई़साईयों का क्रोस)लटकाना।
किसी कुफ्र की मगफिरत न होगी कुफ्र के सिवा सब गुनाह अल्लाह तआला की मशीयत पर हैं जिसे चाहे बख़्श दे |
यह चार कुफ्र कि ख़ास क़िस्में हैं, जिन में आ़म तौर पर काफिर गिरफ्तार हैं।वैसे कुफ्र कि बुनियादी तारीफ(Definition)यही है कि किसी एक भी ज़रूरते दीन का इन्कार कुफ्र है।और अल्लाह तआ़ला व रसूल स़ल्लल्लाहो अ़लैही व आलिही व सल्लम की बताई हुई तमाम बातों को ज़रुरीयाते दीन कहते हैं।
इस पोस्ट में कुफ़्र और ईमान के बारे में इतना ही।कुफ़्र और ईमान के बारे में आइंदा फ़िर कभी इंशाअल्लाहुलअ़ज़ीज़ इस ब्लॉग में लिखा जाएगा।अगली पोस्ट से"इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमीयत" के बारे में बयान शुरू होगा।
कोई भी चीज़ कैसे जाएज़ होती है या नाजाएज़ होती है इस बात को समझने के लिए आगे "इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमीयत" के बयान को ध्यान से पढ़ें।
इस ब्लॉग पर लिखे बयानात अगर एक बार पढ़ने में समझ में ना आएं तो दोबारा पढ़ें।अगर दुनियावी पढ़ाई समझ में ना आए तो इंसान दुनिया में फ़ेल हो जाता है लेकिन यह आख़िरत यानी मौत के बाद हमेशा हमेशा का मामला है यहां फ़ेल होना हरगिज़ नहीं चलेगा।अगली पोस्ट पढ़ने के लिए निचे लिंक पर क्लिक करें...
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