ग्यारहवीं पोस्ट--आयाते मुतशाबिहात की पहचान--1 (फ़ैसला ता क़ियामत--11)

बिस्मिल्लाहिर्रह़मानिर्रह़ीम
नह़मदुहू व नुस़ल्ली व नुसल्लिमु अ़ला रसूलिहिल करीम।
पिछली दस पोस्टों में हम ने पढ़ा किस त़रह़  1)कुफ्र और ईमान कि ताअ़रीफ यानी व्याख्या(Definition)।
2)इ़ल्मे फ़िक़ह में इजमाए़ उम्मत की अहमीयत।
3)इस सवाल का स़ह़ीह़ जवाब कि "शरीअ़त पहले है या त़रीक़त"?
इन तीनों बातों को ना जानने की वजह से इंसान "मुनाफ़िक़" यानी "बदमज़हब" बन जाता है।अब चौथी बात "आयाते मुतशाबिहात की पहचान के बारे में इस पोस्ट में बात करनी है,क्योंकि बदमज़हब आयाते मुतशाबिहात पेश कर के भी लोगों को गुमराह करते हैं।चुनांचे...
मुस्लिम शरीफ़ में इ़ल्म के बयान में ह़ज़रते आ़एशा स़िद्दीक़ा रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़नहा से मरवी है कि रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने सूरह आल इ़मरान शरीफ़ की यह सातवीं आयते मुबारक तिलावत फ़रमाई...
ھُوَ الَّذِيْ اَنْزَلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ مِنْهُ اٰيٰتٌ مُّحْكَمٰتٌ ھُنَّ اُمُّ الْكِتٰبِ وَاُخَرُ مُتَشٰبِهٰتٌ فَاَمَّا الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ زَيْغٌ فَيَتَّبِعُوْنَ مَا تَشَابَهَ مِنْهُ ابْتِغَا ءَ الْفِتْنَةِ وَابْتِغَا ءَ تَاْوِيْلِه څ وَمَا يَعْلَمُ تَاْوِيْلَه اِلَّا اللّٰهُ ڤ وَالرّٰسِخُوْنَ فِي الْعِلْمِ يَقُوْلُوْنَ اٰمَنَّا بِه كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ رَبِّنَا وَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّا اُولُوا الْاَلْبَابِ{۷}
यानी"वही है जिसने तुम पर यह किताब उतारी,इसकी कुछ आयतें स़ाफ़ मानी रखती हैं, वह किताब की अस़्ल हैं,और दोसरी वह हैं जिन के मानी में इश्तिबाह है,वह जिन के दिलों में कजी है वह इश्तिबाह वाली के पीछे पड़ते हैं गुमराही चाहने और उस का पहलू ढुंढने को,और उस का ठीक पहलू अल्लाह तआ़ला ही को मालूम है और पुख़्ता इ़ल्म वाले कहते हैं हम उस पर ईमान लाए,सब हमारे रब तआ़ला के पास से है,और नस़ीह़त नहीं मानते मगर अ़क़्ल वाले।"
ह़ज़रते आ़एशा सिद्दीक़ी रद़ीयल्लाहो तआ़ला अ़नहा फ़रमाती हैं रसूलल्लाह स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया"जब तुम उन लोगों को देखो जो क़ुरआन पाक के मोतशाबिहात की पैरवी करते हैं,तो यही वह लोग हैं जिन का अल्लाह तआ़ला ने नाम ज़िक्र फ़रमाया पस उन से बचो।"
इस आयते मुबारक और इस ह़दीस शरीफ़ में साफ़ तौर पर यह बताया गया है कि क़ुरआन पाक में आयाते मुह़कमात और आयाते मोतशाबिहात दो क़िस्म की आयतें आई हैं लेकिन जो लोग आयाते मोतशाबिहात के फ़ेर में पड़ते हैं, उन्हें ख़राब दिल वाला कहा गया है और उन से बचने और दूर रहने का ह़ुक्म दिया गया है।अब जो शख़्स आयाते मुह़कमात और आयाते मोतशाबिहात में फ़र्क़ ही नहीं कर पाएगा वह आयाते मोतशाबिहात के फ़ेर में पड़ने से ख़ूद को कैसे बचाएगा?और 
आयाते मोतशाबिहात के फ़ेर में पड़ने वाले गुमराह फ़िरक़ों से कैसे दूर हो पाएगा।
"इजमाए़ उम्मत में इ़ल्मे फ़िक़ह की अहमियत" की पहली क़िस्त में ही हम पढ़ चूके हैं की क़ुरआन पाक व अह़ादीसे शरीफ़ा में सिवाए "इजमाए़ उम्मत" के यानी सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के ज़माने से आज तक लगातार चले आ रहे "अहले सुन्नत वल जमाअ़त" के "ओ़लमाए किराम और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न" के सिवा कोई भी दखल नहीं दे सकता।तो सबसे पहली बात तो यही है कि इजमाए़ उम्मत के बुज़ुर्गों को ही यह ह़क़ है कि वह फ़ैस़ला फ़रमाएं कि कौनसी आयात आयाते मुह़कमात हैं और कौन सी आयात आयाते मोतशाबिहात।और इन बुज़ुर्गाने दीन रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न ने काफी अच्छी बह़स करके आयाते मोतशाबिहात किसे कहते हैं यह अच्छी त़रह़ समझाया भी है और क़ुरआन पाक में की आयाते मोतशाबिहात की फ़हरिस्त यानी लिस्ट भी बताई है।जिसे देखना हो वह तफ़्सीरे नई़मी तीसरा पारा सूरह आल ई़मरान शरीफ़ ज़रूर देखे।
क़ुरआन पाक में तीन क़िस्म की आयतें आई हैं।पहली क़िस्म है "आयाते मुक़त़्त़िआ़त",दोसरी "आयाते मुह़कमात" और तीसरी "आयाते मुतशाबिहात"।
पहली क़िस्म:-क़ुरआन पाक में आयात की पहली क़िस्म है "आयाते मुक़त़्त़िआ़त"जैसे...
الٓـمّٓ ۚ الٓـمّٓصٓ ۚ یٰسٓ ۚ حٰمٓ  نٓ 
और भी आयाते मुक़त़्त़िआ़त क़ुरआन पाक में हैं।इन्हें आ़म लोग ह़ुरूफ़े मुक़त़्त़िआ़त भी कहते हैं।इन के मानी(meaning) अल्लाह तआ़ला ने अपने ह़बीब स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम को बताए हैं और सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के त़ुफ़ैल अपने कुछ मह़बूब बंदों को भी इन के मानी का कुछ इ़ल्म अ़त़ा फ़रमाया है।चुनांचे रिवायात से साबित है कि जब کٓہٰیٰعٓصٓ ۟ (यानी काफ़ हा या ऐ़न स़्वाद) नाज़िल हुई तो ह़ज़रते जिब्रील अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम ने जब अ़र्ज़ की "काफ़" तो ह़ुज़ूर स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने फ़रमाया "मैं ने जान लिया" फिर अ़र्ज़ किया "हा" फ़रमाया "मैं ने जान लिया" फिर अ़र्ज़ किया "या" फ़रमाया "मैं ने जान लिया" फिर अ़र्ज़ किया "ऐ़न" फ़रमाया "मैं ने जान लिया" फिर अ़र्ज़ किया "स़्वाद" फ़रमाया "मैं ने जान लिया"।ह़ज़रते जिब्रील अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम ने अ़र्ज़ किया कि आप स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने क्या जान लिया?मुझे तो कुछ ख़बर न हुई।
और तफ़सीरे क़ुरत़बी सूरह बक़रह शरीफ़ के शुरू में है कि कल्बी ने कहा "यह क़स्में हैं,अल्लाह तआ़ला ने उन के शर्फ़ और फ़ज़ल की वजह से उन के साथ क़स्में उठाई हैं।यह अल्लाह तआ़ला के अस्मा यानी नामों में से हैं।ह़ज़रते इब्ने अ़ब्बास रद़ियल्लाहो तआ़ला अ़नहुम से भी यह मरवी है।"
दोसरी क़िस्म:-क़ुरआन पाक में आयात की दोसरी क़िस्म है"आयाते मुह़कमात"जैसे...
 وَ اَقِیۡمُوا الصَّلٰوۃَ وَ اٰتُوا الزَّکٰوۃَ
यानी"और नमाज़ क़ाएम रखो और ज़कात दो।"
लफ़्ज़ मुह़कम यह ह़ुक्म से जुड़ा हुआ है।"आयाते मुह़कमात"के ज़रीए़ अल्लाह तआ़ला बंदों को साफ़ और सीधा ह़ुक्म देता है कि बंदों को क्या करना है।इन आयात के माना(Meaning) में कोई शक शुबहा नहीं होता।
तीसरी क़िस्म:-मोतशाबिहात यह लफ़्ज़ "शुबहा" से जुड़ा हुआ है।यानी इन आयाते मुबारका के "मानी" से शक शुबहा खड़ा हो जाता है।लेकिन इन के बारे में जानकारी ह़ास़िल करना ज़रूरी भी है।क्योंकि अल्लाह तआ़ला ने "आयाते मोतशाबिहात" के फ़ेर में पड़ने वालों के बारे में बताया है कि उन का दिल ख़राब है और सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम ने "आयाते मोतशाबिहात"के फ़ेर में पड़ने वालों से बचने का ह़ुक्म दिया है।तो अगर हमें "आयाते मोतशाबिहात" की पहचान का ही इ़ल्म नहीं होगा तो हम "आयाते मोतशाबिहात"के फ़ेर में पड़ने वालों से कैसे बचेंगे।सबसे पहले तअ़रीफ़(Definition)
चुनांचे इजमाए़ उम्मत के मुत़ाबिक़ आयाते मोतशाबिहात की त़अ़रीफ़ यह है...
"क़ुरआन पाक की आयात में "आयाते मोतशाबिहात" उन आयात को कहते हैं जिन का ज़ाहिरी मानी उन का मक़स़द व मुराद नहीं होता।"
इस की मिसाल यह आयते मुबारक है अल्लाह तआ़ला सूरह ह़दीद शरीफ़ चौथी आयते मुबारक में इरशाद फ़रमाता है...
 وَ ہُوَ مَعَکُمۡ اَیۡنَ مَا کُنۡتُمۡ ؕ
यानी "और वह(अल्लाह तआ़ला) तुम्हारे साथ है तुम कहीं(भी)हो।"
यह "अहले सुन्नत वल जमाअ़त" का एक खुला हुआ अ़क़ीदा है कि अल्लाह तआ़ला जगह से पाक है ना वह एक जगह है और ना हर जगह।यहां पर अल्लाह तआ़ला के बंदे के साथ होने का अगर यह मानी पकड़ा जाए कि अल्लाह तआ़ला ख़ूद ज़ाती तौर पर बंदे के साथ है तो यह कुफ़्र हो जाएगा।इस लिए इस आयते मुबारक का यह मतलब लिया जाएगा कि अल्लाह तआ़ला की ह़ुकूमत बंदे के साथ हर जगह हर वक़्त है।तो क़ुरआन पाक की ऐसी आयात जिन के ज़ाहिरी मानी "शरीअ़ते कामिला" के अ़क़ाए़द से टकराते हों,उन्हें "आयाते मोतशाबिहात" कहते हैं।इन की पहचान का इ़ल्म सीखना भी इस फ़ितने भरे दौर में ज़रूरी है।
इतना पढ़ने के बाद यह सवाल दिल में आता होगा कि हमारे बुज़ुर्गों ने चौदह सौ साल में "आयाते मोतशाबिहात" की फ़हरिस्त यानी लिस्ट तो निकाली होगी?तो इस का जवाब है "हां"।तफ़्सीरे नई़मी तीसरे पारे में सूरह आल इ़मरान शरीफ़ की सातवीं आयत की तफ़्सीर में तफ़सीरे अह़मदी के ह़वाले से "आयाते मोतशाबिहात" की एक लिस्ट दी गई है, और उस लिस्ट को देखने के बाद ज़बरदस्त ताज्जुब और स़दमा भी होगा कि आजकल हमारे ज़माने के बदमज़हब वहाबी जिन आयाते मुबारका को बड़े धड़ल्ले से पेश कर के लोगों को गुमराह कर रहे हैं उन आयात को हमारे बुज़ुर्गों ने सैकड़ों साल पहले ही"आयाते मोतशाबिहात" की फ़हरिस्त में डाल रखा है।मिसाल के तौर पर ह़ज़रत शाह अ़ब्दुलह़क़ मुह़द्दिस देहलवी रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह ने मदारिजुन्नबूवत छटे बाब में फ़रमाया कि वह आयात जिन में नबीयों अ़लैहिमुस़्स़लातो वस्सलाम के लिए आ़म लोगों के स़िफ़ात साबित किए जाएं वह "आयाते मोतशाबिहात" हैं, जैसे 
1)सूरह कहफ़ शरीफ़ आख़िरी आयते मुबारक में है...
قُلۡ اِنَّمَاۤ اَنَا بَشَرٌ مِّثۡلُکُمۡ
इसका आ़म तर्जुमा यह होता है कि आप स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम फ़रमा दीजिए कि मैं तो तुम लोगों जैसा ही एक इंसान हूं।
ह़ज़रत शाह अ़ब्दुलह़क़ मुह़द्दिस देहलवी रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह ने मदारिजुन्नबूवत में एक ख़ास (तीसरा) बाब सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम के फ़ज़्लो शरफ़ के बारे में क़ाएम फ़रमाया और उस में क़ुरआन पाक की आयात और अह़ादीसे स़ह़ीह़ा से सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम की फ़ज़ीलत साबित की।उस में आप रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह "आयाते मोतशाबिहात"और उन की मिस्ल जो"अह़ादीसे मोतशाबिहात"आई हैं उन के बारे में इरशाद फ़रमाते हैं...
"इस क़िस्म के तमाम वह अक़वाल जो वजूद में आए यानी हम लोगों के सामने पेश आए,हमें लाज़िम नहीं है और न हमारा यह मुक़ाम है कि हम उस में दख़ल दें या इश्तराक यानी बराबरी ढुंढें।(यानी नबीयों अ़लैहिमुस़्स़लातो वस्सलाम को हमारी मिस्ल समझने की गुस्ताख़ी करें,जैसा कि उपर सूरह कहफ़ शरीफ़ आख़िरी आयते मुबारक से लग रहा है) या (मआ़ज़ल्लाह) खूशी का इज़हार करें(जैसे कि वहाबी बदमज़हब करते हैं)।बल्कि हमें अदब और ख़ामोशी की ह़द पर रहते हुए(उन के ज़ाहिरी मानी) से बेज़ारी और ख़ामोशी का इज़हार करना चाहिए।आक़ा(यानी अल्लाह तआ़ला) को ह़क़ पहुंचता है कि वह जो कुछ चाहे करे और बरतरी और ग़ल्बे का इज़हार फ़रमाए।और बंदा भी अपने आक़ा (यानी अल्लाह तआ़ला) के ह़ुज़ूर बंदगी और आ़जिज़ी करता है।किसी दोसरे को क्या मजाल और क्या ताब व तवां है कि वह इस मुक़ाम में दाख़िल हो।दख़लअंदाज़ी करे।और ह़द्दे अदब से बाहर हो जाए।मआ़ज़ल्लाह(मतलब यह कि जो"आयाते मोतशाबिहात" और "अह़ादीसे मोतशाबिहात" ऐसी हैं जिन में अल्लाह तआ़ला और अंम्बियाए किराम अ़लैहिमुस़्स़लातो वस्सलाम के बीच नीजी मामलात हैं।तो किसी और को उस में दख़ल देना कुफ़्र है।) चुनांचे ह़ज़रत शाह अ़ब्दुलह़क़ मुह़द्दिस देहलवी रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह आगे फ़रमाते हैं "यह वह मुक़ाम है जहां बहुत से कमज़ोरों जाहिलों के पांव के डगमगा जाने से ख़ुद उन्हीं का नुक़स़ान होता है।(यानी ख़ुद उन्हीं का ईमान चला जाता है)।
चुनांचे इसी बात पर अ़मल करते हुए ह़ुज़ूर आ़ला ह़ज़रत मुजद्दिदे दीनो मिल्लत मुजद्दिदे आ़ज़म इमाम अह़मद रज़ा ख़ान फ़ाज़िले बरैलवी रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह ने सूरह कहफ़ शरीफ़ आख़िरी आयते मुबारक का क्या है अदब से भरपूर तर्जुमा किया है...
"तो फ़रमाओ ज़ाहिर स़ूरते बशरी में तो मैं तुम जैसा हूं",
यानी ह़ूज़र आलाह़ज़रत रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह ने अपने तर्जुमे में यह बात स़ाफ़ फ़रमा दी कि सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम का ज़ाहिर और बात़िन अलग अलग है।और ज़ाहिर में भी मैं सिर्फ देखने में तुम्हारी मिस्ल हूं।मेरी ह़क़ीक़त बिल्कुल अलग है।यही अ़क़ीदा ह़ज़रत शाह अ़ब्दुलह़क़ मुह़द्दिस देहलवी रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह का है।आप रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह ने चार सौ साल पहले ही मदारिजुन्नबूवत शरीफ़ के शुरू में सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम की शाने ज़ाहिर व बात़िन के बारे में मुक़द्दमे में लिखा है"अब रहा आप स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम का ज़ाहिर व बात़िन होना तो आप स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के अनवार ने पूरे आफ़ाक़ यानी सारी मख़लूक़ को घेर रखा है जिस से सारा जहां रोशन है।किसी का ज़ुहूर आप स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के ज़ुहूर के जैसा और किसी का नूर आप स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के नूर की त़रह़ नहीं।और बात़िन से मुराद आप स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के वह असरार (राज़) हैं जिन की ह़क़ीक़त का अदराक(यानी जिन की ह़क़ीक़त को समझना) नामुमकिन है।और क़रीब और दूर के लोग आप स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के जमाल और कमाल में  खो कर रह गए।" 
सूरह कहफ़ शरीफ़ की यह आख़िरी आयते मुबारक आयते मुतशाबिहात में से है।लेकिन यह बात सब को जानना चाहिए कि वहाबियत की बुनियाद इसी "आयते मोतशाबह" पर है।इस आयते मुबारक का ग़लत तर्जुमा पकड़ कर वहाबी अंम्बियाए किराम अ़लैहिमुस़्स़लातो वस्सलाम को अपने मिस्ल कहते रहते हैं।जब कि ह़ज़रत शाह अ़ब्दुलह़क़ मुह़द्दिस देहलवी रह़मतुल्लाहे तआ़ला अ़लैह ने साफ़ बताया है कि हमारा ऐसा मुक़ाम नहीं की ऐसी आयात या अह़ादीस के ज़ाहिरी मानी के ज़रीए़ इश्तराक यानी बराबरी का मुक़ाम ढुंढें।वैसे भी जिन्हें उर्दू या हिन्दी आती है वह मिस्ल का मतलब अच्छे से समझ सकते हैं।मिस्ल का मतलब अस़्ल नहीं होता।एक हाथ में अस़ली हिरा लिया जाए और एक हाथ में नक़ली हीरा।और कहा जाए यह अस़ली हीरा नक़ली हीरे की मिस्ल है।यानी अस़ली हीरा नक़ली हीरे जैसा है।तो समझदार आदमी ज़रूर यह कहेगा कि नक़ली हीरा सिर्फ मिस्ल होने में अस़ली जैसा है।लेकिन दोनों की अस़ल अलग है।लेकिन जिस के दिल में सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम की मोह़ब्बत होगी वह इन बातों को मानेगा।लेकिन जिस के दिल में सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही वसल्लम की मोह़ब्बत ही ना हो वह कैसे माने।
2)सूरह त़ाहा शरीफ़ आयत नंबर 121में है...
وَ عَصٰۤی اٰدَمُ رَبَّہٗ فَغَوٰی ﴿۱۲۱﴾۪ۖ
इस आयते मुबारक का तर्जुमा करने वालों ने ऐसे भी कर दिया है कि मआ़ज़ल्लाह ह़ज़रते आदम अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम ने अपने रब की नाफ़रमानी की पस बहक गया।या अपने रब की बात ना मानी तो राह से हट गए।जबकि ऐसा अ़क़ीदा किसी भी नबी अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम के बारे में रखना कि वह रब तआ़ला की नाफ़रमानी कर सकते हैं या बहक सकते हैं, या अल्लाह तआ़ला की राह से हट सकते हैं, यह कुफ़्र है।
और ह़ुज़ूर आलाह़ज़रत रहमतुल्लाह तआ़ला अ़लैह ने इस का तफ़्सीरी समझाने वाला मोह़ब्बत और अदब से भरा हुआ तर्जुमा किया है।चुनांचे आप रहमतुल्लाह तआ़ला अ़लैह का तर्जुमा है...
"और ह़ज़रते आदम अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम से अपने रब तआ़ला के ह़ुक्म में लग़ज़िश वाकेअ़ हुई तो जो मतलब चाहा था उस की राह ना पाई।"
वाक़या यह था कि शैत़ान मरदूद ने अल्लाह तआ़ला की झूटी क़सम खाकर यह बताया था कि अगर आप अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम ने गेहूं खा लिया तो आप को दाएमी हमेशा हमेशा की ज़िंदगी मिल जाएगी और आप दाएमी जन्नत में रहोगे।तो बज़ाहिर गलती से लेकिन ह़क़ीक़त में रब तआ़ला की इजाज़त से आप अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम ने अपनी औलादों को सिखाने के लिए गेहूं खा लिया कि ऐ! क़ियामत तक की मेरी औलादो कभी ना अल्लाह तआ़ला की नाफ़रमानी करना और ना कभी शैत़ान मरदूद की बात मानना।मैं(बज़ाहिर) अल्लाह तआ़ला की नाफ़रमानी करके और शैत़ान मरदूद की बात मान के अगर जन्नत में दाख़िल होने के बाद बाहर आ सकता हूं तो तुम जो पहले ही जन्नत के बाहर हो जन्नत में कैसे दाख़िल हो पाओगे।तो ह़ज़रते आदम अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम का बज़ाहिर गेहूं खाने से यह मक़स़द था कि मुझे हमेशा हमेशा की ज़िंदगी मिल जाए।और यही मक़स़द नहीं मिल पाया।उसी बात का इस आयते मुबारक में बयान है।
3)सूरह मोह़ंम्मद शरीफ़ आयत नंबर 19 में है...
وَ اسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۡۢبِکَ وَ لِلۡمُؤۡمِنِیۡنَ وَ الۡمُؤۡمِنٰتِ
इस आयते मुबारक के तर्जुमे में लिखने वालों ने आक़ा स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम की शान में यहां तक लिख दिया है कि अपने गुनाहों की बख़्शिश मांगा करें,अपने क़ुस़ूर पर इस्तग़फ़ार करते रहिए।मआ़ज़ल्लाह तआ़ला!हर नबी गुनाहों से पाक माअ़सूम होते हैं।उन्हें गुनाहगार समझना कुफ़्र है।चुनांचे ह़ुज़ूर आलाह़ज़रत रहमतुल्लाह तआ़ला अ़लैह ने इस का भी तफ़्सीरी समझाने वाला मोह़ब्बत और अदब से भरा हुआ तर्जुमा किया है।चुनांचे आप रहमतुल्लाह तआ़ला अ़लैह का तर्जुमा है...
"और ऐ मह़बूब!स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम अपने ख़ास़ों और आ़म मुसलमान मर्दों और औ़रतों के गुनाहों की माफ़ी मांगो।"
और तफ़सीरे अह़मदी में ह़ज़रत शाह मुल्ला अह़मदजीवन रहमतुल्लाह तआ़ला अ़लैह ने सूरह बक़रह शरीफ़ आयत नंबर 124 قَالَ لَا یَنَالُ عَہۡدِی الظّٰلِمِیۡنَ की तफ़सीर में फ़रमाया कि तमाम वह आयतें जिन से अंम्बियाए किराम अ़लैहिमुस़्स़लातो वस्सलाम का गुनाहगार होना मालूम होता हो उन सब की तावील वाजिब है।जैसे सूरह यूसुफ अ़लैहिस़्स़लातो वस्सलाम आयत नंबर 24 में है... 
 لَقَدۡ ہَمَّتۡ بِہٖ ۚ وَ ہَمَّ بِہَا
और सूरह बक़रह शरीफ़ आयत नंबर 35 में है...
فَتَکُوۡنَا مِنَ الظّٰلِمِیۡنَ ﴿۳۵﴾
सूरह अद़्द़ोह़ा शरीफ़ आयत नंबर 7 में है...
وَ وَجَدَکَ ضَآلًّا فَہَدٰی ۪﴿۷﴾
इन की तावील यानी अच्छे से समझा कर इन की और इन जैसी आयात का तर्जुमा और तफ़्सीर लिखने और बयान करने का ह़ुक्म है।यही"अहलेसुन्नत वलजमाअ़त" का त़रीक़ा रहा है।
 तो क़ियामत तक के लिए यह भी एक ज़रूरी इ़ल्म है कि "आयाते मोतशाबिहात" के स़ह़ीह़ तर्जमे व तफ़्सीर की जानकारी हो,वरना इसके ग़लत़ तरजुमे व तफ़्सीर से करोड़ों लोग गुमराह व काफ़िर हो चुके हैं जिस की आंखों के सामने की मिसाल वहाबी हैं।
अस़ल में "आयाते मोतशाबिहात" अल्लाह तआ़ला की त़रफ़ से आज़माइश हैं।और आदमी को मजबूर करती हैं कि क़ुरआन पाक के समझने का इ़ल्म अच्छे से सीखें।और क़ुरआन पाक और अह़ादीसे शरीफ़ा को समझने का पहला क़ानून ही यह है कि यह देखा जाए कि सरकार स़ल्लल्लाहो तआ़ला अ़लैहि व आलिही व सल्लम के ज़माने से आज तक लगातार चले आ रहे "अहले सुन्नत वल जमाअ़त" के "ओ़लमाए किराम और औलिया अल्लाह रिद़वानुल्लाहे अ़लैहिम अजमई़न" ने क़ुरआन पाक की आयात और अह़ादीसे शरीफ़ा का क्या मतलब और मक़स़द बयान किया है।उन के बताए हुए अ़क़ीदे के ख़िलाफ़ क़ुरआन पाक और अह़ादीसे शरीफ़ा का मतलब और मक़स़द निकालना कुफ़्र है।
आयाते मोतशाबिहात के बारे में अभी बयान पूरा नहीं हुआ है, आगे फिर किसी पोस्ट में आयाते मोतशाबिहात के बारे में इंशाअल्लाहुलअ़ज़ीज़ फिर लिखने का इरादा है।




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